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________________ तत्त्वसार अथ निश्चयवर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूपं प्रतिपादयति सूत्रकारःमूलगाथा-ससहावं वेदंतो णिच्चलचित्तो विमुक्कपरभावो / ___ सो जीवो णायव्वो दसण-णाणं चरित्तं च // 56 // संस्कृतच्छाया-स्वस्वभावं विदन् निश्चलचित्तो विमुक्तपरभावः / स जीवो ज्ञातव्यो वर्शनं ज्ञानं चारित्रं च // 56 // टीका-'सो जीवो णायव्यो वेसण गाणं चरित्तच' इत्यादि, व्याख्यानं करोति-स एव जीवो ज्ञातव्यो भवति ज्ञाततत्त्वः दर्शन-ज्ञान-चारित्रं च, दर्शन-शान-चारित्रस्वरूपं भवति / कि कुर्वन् सन् ? इत्याशङ्कयाह--'ससहावं वेदंतो' स्वस्वभावं विदन् जानन् अनुभवन् सन् ? पुनश्च कथम्भूतः सन् ? "णिच्चलचित्तो' निश्चलचित्तो निराकुलमानसः सन् / पुनरपि किविशिष्टः ? 'विमुक्कपरभावो' विमुक्तपरभावः, विशेषेण मुक्तः परित्यक्तः परो रागाविर्भावः परिणामो येन स एवंविधः सन् निश्चयमोक्षमार्ग रत्नत्रयस्वरूपं परिणमतीति भावार्थः॥५६।। . आर्गे कहैं हैं-जीव ही दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप है भा०व०-जो जीव दर्शन ज्ञान चारित्र जानना योग्य है। स्वभावकू जानता अनुभव करता निश्चल चित्त निराकुल मानस भया संता, अर त्यज्या है परभाव जो रागादि भाव परिणाम : जानें सो या प्रकार भया संता // 56 / / अब सूत्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रका स्वरूप प्रतिपादन करते हैं अन्वयार्थ (ससहावं) अपने आत्मस्वभावको (वेदंतो) अनुभव करता हुआ जो जीव (विमुक्कपरभावो) परभावको छोड़कर (णिच्चलचित्तो) निश्चल चित्त होता है (सो जीवो) वही जीव (दसण णाणं चरित्तं च) सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और सम्यक् चारित्र है, ऐसा (णायव्वो) जानना चाहिए। . टोकार्थ-'सो जीवो णायव्वो दंसणणाणं चरित्तं च' इत्यादि गाथाका टीकाकार व्याख्यान करते हैं-तत्त्वके ज्ञाता पुरुषोंको वही जीव दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वरूप जानना चाहिए / क्या करता हुआ? ऐसी आशंका उठाकर सूत्रकार कहते हैं-'ससहावं वेदंतो' अर्थात् अपने स्वभावको जानता और अनुभव करता हुआ। -- प्रश्न-पुनः कैसा होता हुआ? उत्तर-'णिच्चलचित्तो' निश्चल चित्त अर्थात् निराकुल मनवाला होता हुआ। प्रश्न-फिर भी कैसा होता हुआ ? उत्तर-विमुक्कपरभावो' विमुक्त परभाव होता हुआ। विशेष रूपसे मुक्त अर्थात् छोड़ दिया है रागादि पर भाव या पर-परिणामको जिसने, ऐसा होता हुआ वह जीव रत्नत्रयस्वरूप निश्चय मोक्षमार्गरूपसे परिणत होता है। . भावार्थ-जो रागादि पर भावको छोड़कर स्व-स्वभावको जानता हुआ निश्चल मन हो जाता है, वही निश्चय रत्नत्रय है // 56 //
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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