________________ तत्वसार टीका-'जो जीवो' इत्यादि, पवखण्डनारूपेण व्याख्यानं करोति टीकाकार:-'जो' यो निर्विकल्पसमाधिगतो जीवो न मुञ्चति न त्यजति / कम् ? भावम् / कथम्भूतम् ? 'सगं' स्वकीयमात्मीयं भावम् / 'ण परं परिणमइ मुणइ अप्पाणं' परं रागादिभावं न. परिणमति न तन्मयो भवति / तहि कि करोति ? मन्ते जानात्यनुभवति। कम् ? आत्मानमात्मस्वरूपं ज्ञानमयम् / संवरणं संवरो भवतीत्यध्याहारः क्रियते। 'णिज्जरणं सो फुडं भणिओ' निर्जरणं निर्जरा / स. एव जीवो निर्जरा भणितः स्फुटं यथा भवतीति मत्वा स एवात्मा शुद्धनिश्चयेन संवर-निर्जरास्वरूपो भावनीयो भव्यजनैरित्यर्थः // 55 // टीकार्थ-'जो जीवो' इत्यादि गाथाका टीकाकार व्याख्यान करते हैं जो निर्विकल्प समाधिमें स्थित जीव नहीं छोड़ता है, नहीं त्याग करता है। प्रश्न-किसे नहीं त्याग करता है ? उत्तर-भावको नहीं त्याग करता है। प्रश्न-कैसे भावको नहीं त्यागता है ? उत्तर-'सगंभावं' अर्थात् अपने आत्मीय भावको नहीं त्यागता है। 'ण परं परिणमइ, मुणइ अप्पाणं' और न पर भावरूपसे परिणत होता है, अर्थात् रागादिभावरूपसे तन्मय नहीं होता है। प्रश्न-तो फिर क्या करता है ? उत्तर-मनन करता है, जानता है और अनुभव करता है। . प्रश्न-किसका अनुभव करता है ? उत्तर-अपने ज्ञानमयी आत्मस्वरूपका अनुभव करता है / वह संवरण अर्थात् संवर है। यहां भवति' इस क्रियाका अध्याहार किया गया है। 'णिज्जरणं सो फुडं भणिओ' अर्थात् वही जीव स्पष्टरूपसे निर्जरा कहा गया है। . ऐसा जानकर भव्यजनोंको शुद्ध निश्चयनयसे संवर और निर्जरारूप वही शुद्ध आत्मा भावना करनेके योग्य है। - भावार्थ-अपने भावको नहीं छोड़नेसे तथा परभावरूपसे परिणमन नहीं करनेसे कर्मोका आस्रव रुकता है, अतः उस समय आत्मा संवररूप है / इसी प्रकार आत्मस्वरूपका अनुभव करनेसे कर्मोंकी निर्जरा होती है / इस प्रकार निश्चयनयसे स्वभावमें स्थित आत्मा ही संवर और निर्जरारूप भगवान्ने कहा है // 55 //