________________ तत्त्वतार उत्तमसंहननस्यैकाग्यचिन्तानिरोषो ध्यानमान्तमुंहति / गाविसंहननत्रितयमुत्तमम् / वनर्षभनाराचसंहननं वजनाराचसहननं नाराचसंहननमिति तत्त्रयमपि ध्यानस्य साधनं भवति / मोक्षस्य तु आद्यमेव संहननं प्रोक्तं नान्यद / इत्येवंविषेन बाह्याभ्यन्तररूपेण तपसा कर्मणां निर्जरा भवतीत्यागमवचनादिति / भोः श्री अमसिंह, संसार-शरीर-भोगनिर्विष्ण ! इति मत्वा सर्वज्ञवीतरागदेवोक्तद्वादशविषे तपसि भावना कर्तव्येति तात्पर्यार्थः // 54 // अथ निश्चयसंवर-निर्जरयोः स्वरूपं प्रतिपादयन्त्यप्रे श्रीदेवसेनदेवाःमूलगाथा-ण मुएइ सगं भावं ण परं परिणमइ मुणइ अप्पाणं / जो जीवो संवरणं णिज्जरणं सो फुडं भणिओ // 55 // संस्कृतच्छाया-न मुञ्चति स्वकं भावं न परं परिणमति मनुते आत्मानम् / यो जीवः संवरणं निर्जरणं स स्फूट भणितः॥५५॥ आर्ग निर्जरा संवरका कारण कहै हैं भा० व०-जो निर्विकल्प समाधिकू प्राप्त भया जीव है सो छोड़े है, नांही त्यजे है। कोन कू ? भावकू। कैसा भाव ? स्वकीय आपका भाव। अर पर रागादिक भावकू नाही परणम है, नांही तन्मय होय है / तो कहा कर है ? जाने है / अनुभव कर है। काहे कू? आत्मा कू। आत्मस्वरूप ज्ञानमय संवर होय है, यह अध्याहार करना और मिलाना / सो ही जीव निर्जरा भणित कहिए कही। या प्रकार मानि सो आत्मा शुद्ध निश्चयनयकरि संवर निर्जरामय स्वरूप भावनां करना भव्यजननि., या प्रकार अर्थ जाननां // 55 // ___ शंका-यह व्युत्सर्ग तप किसलिए किया जाता है ? : ' उत्तर-निःसंगता, निर्भयता और जीनेकी आशाके निराकरण करनेके लिए किया जाता है। / इस प्रकार यह व्युत्सर्ग नामका पांचवां अभ्यन्तर तप है 5 / उत्तम संहननके धारक साधुका एकाग्र होकर चिन्ताओंका निरोध करना ध्यान कहलाता है। यह चिन्ता-निरोधरूप ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक होता है। वज्रवृषभनाराचसंहनन, वज्रनाराचसंहनन और नाराच संहनन ये आदिके तीन संहनन उत्तम कहलाते हैं, क्योंकि ये तीनों ही ध्यानके साधन हैं। किन्तु मोक्षका साधन तो आदिका वज्रवृषभनाराचसंहनन ही कहा गया है, अन्य नहीं 6 / ___ इस प्रकारके बाह्य और अभ्यन्तररूप तपके द्वारा कर्मोंकी निर्जरा होती है, ऐसा आगमका वचन है। ऐसा जानकर संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त हे अमरसिंह ! सर्वज्ञ वीतरागदेवके द्वारा कहे गये बारह प्रकारके तपमें तुम्हें भावना करनी चाहिए। यह इस गाथाका तात्पर्यरूप अर्थ है // 54 // अब आगे श्रीदेवसेनदेव निश्चय संवर और निर्जराका स्वरूप प्रतिपादन करते हैं अन्वयार्थ-जो जीवो) जो जीव (सगं) अपने (भावं) भावको (ण माह) नहीं छोडता है, (पर) और पर पदार्थरूप (ण परिणमइ) परिणत नहीं होता है, किन्तु (अप्पाणं) अपने आत्माका (मुणइ) मनन, चिन्तन और अनुभवन करता है, (सो) वह जीव (फुड) निश्चयनयसे (संवरणं) संवर और (णिज्जरणं) निर्जरारूप (भणिओ) कहा गया है।