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________________ 112 तत्त्वसार लापकर्षणाविस्तदनुकूलानुष्ठाने च वैयावृत्यम् / वैयावृत्त्यकरणे समाध्याधान-प्रवचनवात्सल्यादिभवति। वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाऽऽम्नाय-धर्मोपदेशा इति पंचप्रकारस्वाध्यायरूपं चतुर्थमाभ्यन्तरं तपः 4 / उक्तं च तत्रैव विस्तारेण-निरवद्यग्रन्थार्थोभयप्रदानं वाचना 1 / संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानुयोगः पृच्छना 2 / अषिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा 3 / घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः४। धर्मकथाधनष्ठानं धर्मोपदेशः५। स एष पवविधः स्वाध्यायः किमर्थः? प्रज्ञातिशय प्रशस्ताध्यवसायः परमसंवेगस्तपोवृद्धिरतीचारविशुद्धिरित्येवमाचः। ____ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्यागः / स द्विविधः-बायोपवित्यागः 1 अभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति 2 / अनुपातं वास्तु-धनधान्यादि बाह्योपषिः। क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरोपधिः ।कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वा बाह्याभ्यन्तरोपषित्याग इत्युच्यते / स किमर्यः? निःसङ्गन्त्व-निर्भयत्व-जीविताशाव्युवासार्थः / इति व्युत्सर्गाख्यमाभ्यन्तरं पञ्चमं तपः 5 / ..... और श्राविकाके समुदायको भी संघ कहते हैं 8 / चिरकालके दीक्षित मुनिको साधु कहते हैं 9 / लोकमें सन्मान-प्राप्त साधुको मनोज्ञ कहते हैं 10 / अपने वैभवके अविनाश या सदुपयोगके लिए धार्मिक अनुष्ठान आदिके द्वारा और साधुजनोंको धर्मके उपकरण और संयमके साधक पीछी, कमण्डलु और शास्त्र आदि देकर उन्हें संयममें सम्यक् प्रकार स्थापित करना और उनके बीमार होनेपर रोगादिका प्रतीकार करना वयावृत्य कहलाता है / बाहिरी धनादि द्रव्यके अभावमें शरीरके द्वारा रोगी साधु आदिके शरीरसे पित्त, कफ आदि अन्तर्मलको दूर करना और उनके अनुकूल आचरण करना भी वैयावृत्य तप कहलाता है / इस वैयावृत्त्यके करनेपर साधुके चित्तमें समाधि प्राप्त होती है और वैयावृत्त्य करनेवालेका प्रवचनवात्सल्य आदि प्रकट होता है। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशके भेदसे पांच प्रकारका स्वाध्याय चौथा आभ्यन्तर तप है 4 / उसी तत्त्वार्थवृत्ति ग्रंथमें इन पांचोंका विस्तारसे स्वरूप इस प्रकार कहा ह-शास्त्रक निदाष ग्रथ, अथे और दोनोंका प्रदान करना वाचना है 1 / तत्त्वके विषयमें उत्पन्न हुए संशयके दूर करनेके लिए अथवा अपने जाने हुए विषयके और भी दृढ़ करनेके लिए गुरुजनोंसे प्रश्न करना पृच्छना है 2 | पढ़े हुए अर्थका मनसे पुनः पुनः अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है 3 / शुद्ध उच्चारण करते हुए पाठ-परावर्तन करना आम्नाय है / धार्मिक कथाएं आदि कहकर धर्मका उपदेश देना धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय है। शंका-यह पांच प्रकारका स्वाध्याय किसलिए करना चाहिए? उत्तर-बुद्धिके अतिशयके लिए, प्रशस्त अध्यवसायके लिए, परम संवेगके लिए, तपकी वृद्धिके लिए और अतीचारोंकी निवृत्ति आदिके लिए स्वाध्याय तप करना चाहिए। बाहिरी और भीतरी उपधिके त्यागको व्युत्सर्ग तप कहते हैं। वह दो प्रकारका है-बाह्य उपधि त्याग और अभ्यन्तर-उपधित्याग। साधुके द्वारा नहीं ग्रहण किये गये भवन, धन, धान्यादिक बाह्य उपधि हैं। क्रोधादि आत्माके विकारी भाव अभ्यन्तर उपधि हैं। इन दोनों प्रकारकी उपधिका त्याग व्युत्सर्ग तप है। अथवा नियत काल तक या जीवनपर्यन्त कायका त्याग करना बाह्य और माभ्यन्तर उपधित्याग कहा जाता है।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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