________________ 116 तत्त्वसार . अथायमात्मा निश्चयमाधितो ज्ञानादिगुणमयो भवतीति प्रकाशयन्ति श्रीदेवसेनदेवाःमूलगाथा—जो अप्पा तं णाणं जं गाणं तं च दंसणं चरणं / सा सुद्धचेयणा वि जं णिच्छयणयमस्सिए जीवे // 57 // संस्कृतच्छाया-य आत्मा तज्ज्ञानं यज्ज्ञानं तच्च दर्शनं चरणम् / सा शुद्धचेतनापि च निश्चयनयमाश्रिते जीवे // 57 // * टीका-णिच्छयणयमस्सिए जीवे' इत्यादि, पवखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते टीकाकारेण मुनिना। निर्विकल्पपरमसमाधिस्वरूपं निश्चयनयमाभिते जीवे सति / 'जो अप्पा तं णाण जाणं तंबंसणं बरणं' य एवात्मा रागादिरहितः शशात्मा तदेव ज्ञानमतीन्द्रियम, यज्ज्ञानं तच्च दर्शनम्, तदेव स्वरूपाचरणं चारित्रं च / 'सा सुद्धचेयणा विय' सैव शुद्धा ज्ञानचेतनापि चेति भावना कर्तव्येति भावार्थः॥५७॥ आगे फेरि हू कहें हैं भा०व०-जे निर्विकल्प परम समाधिस्वरूप निश्चयनयकू आश्रित जीवकू होत संतें जीव ही आत्मा रागादि-रहित शुद्धात्मा सो ही ज्ञान अतीन्द्रिय जो ज्ञान, अर सो ही दर्शन, सो ही स्वरूपाचरण चारित्र, सो ही शुद्ध ज्ञानचेतना हू, या भावना कर्तव्य है / / 57 // अब यह आत्मा निश्चयको आश्रित कर ज्ञानादि गुणमय होता है, यह श्री देवसेनदेव प्रतिपादन करते हैं अन्वयार्थ (णिच्छयणयमस्सिए) निश्चयनयके आश्रित (जीवे) जीवमें (जो अप्पा) जो आत्मा है, (तं णाणं) वही ज्ञान है, (जं णाणं) और जो ज्ञान है (तं च दंसणं चरणं) वही दर्शन है, वही चारित्र है (सा शुद्धचेयणा वि य) और वही शुद्ध चेतना भी है। ___टोकार्थ-'णिच्छयणयमस्सिए जीवे' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैंनिर्विकल्प परम समाधि स्वरूप निश्चयनयके आश्रित जीवके होने पर 'जो अप्पा तं णाणं जं णाणं तं च दंसणं चरणं' अर्थात् रागादि-रहित जो शुद्ध आत्मा है, वही अतीन्द्रिय ज्ञान है, जो ज्ञान है वही दर्शन है और वही स्वरूपाचरणरूप चारित्र है। ‘सा सुद्धचेयणा वि य' और विही शुद्ध ज्ञान चेतना भी है, ऐसी भव्यजनोंको भावना करनी चाहिए।. यह इस गाथाका भावार्थ है॥५७॥