________________ 100 तस्वसार स्फुटं निश्चितं शुद्धात्मतत्त्वं न लभते न प्राप्नोति / कथम्भूतं तत्त्वम् ? 'तच्चं वियाररहिसं तस्य भावस्तत्त्वम्, विचार्यते विचारः, अथवेवं वस्तु चेतनमिवं वस्तु न चेतनमिति वा विक्रियते विकारः, विकारेण रहितं विचार-रहितं वा। किं कुर्वन् ? "णिच्चं चिय झायमाणो हु' नित्यमेव ध्यायते ध्यायमानः स्फुटं यथा भवति ततो हीति ज्ञात्वा संसार-शरीर-भोगेम्यो निविण्णेन विरक्तेन विषयसुखाभासभयाकुलत्वोत्पादकानाद्यनन्तदुःखमूच्छितविषयसुखाद विपरीतातीन्द्रियात्मोत्यानाकुलत्वलक्षणमोक्षसुखानुरक्तेन ध्यातृपुरुषेण ध्यातव्यमिति तात्पर्यार्थः॥४७॥ अथ देहस्वरूपं देहममत्वकारिणो बहिरात्मनः स्वरूपं निरूपयतिमूलगाथा-मुक्खो विणासरूवो चेयणपरिवज्जिओ सया देहो। तस्स ममत्ति कुणंतो बहिरप्पा होइ सो जीवो // 48 // संस्कृतच्छाया-मूो विनाशकपश्चेतनापरिवनितः सदा देहः / तस्य ममतां कुर्वन् बहिरात्मा भवति स जीवः // 48 // . आगें कहें हैं-देहविर्षे ममत्व करता बहिरात्मा होय है भा० व०-देह है सो सदाकाल मूर्ख है, विनाशरूप है, चेतनारहित है। ता विष ममता करता बहिरात्मा सो जीव होय है / भावार्थ-ताही पूर्वोक्त देहविर्षे ममता तन्मयता करता जीव कैसा होय है ? स्वशुद्धात्माकी अनुभूति जो अनुभव ताका अभावकरि उपार्जित ज्ञानावरणादिक कर्मका उदयकरि जीव बहिरात्मा निज आत्मतत्त्व बहिर्भूत आत्मा चित्त जाका सो बहिरात्मा होय है // 48 // प्राणचतुष्कात्मक ज्ञानदेहसे विलक्षण जो अशुद्ध इन्द्रिय आदि दश प्राणमय पुद्गल-देहका सुख है, उस देह-सुखमें वह प्रतिबद्ध अर्थात् अति आसक्त है, इस कारणसे वह तत्त्वध्याता हुआ पुरुष भी निश्चित रूपसे शुद्ध आत्मतत्त्वको नहीं प्राप्त कर पाता है। प्रश्न-कैसे तत्त्वको ध्याता हुआ पुरुष शुद्ध आत्माको नहीं प्राप्त कर पाता है ? उत्तर-'तच्चं वियार-रहियं' अर्थात् विचार-रहित तत्त्वको ध्याता हुआ भी पुरुष शुद्ध आत्माको प्राप्त नहीं कर पाता। सत्तात्मक वस्तुके भावको तत्त्व कहते हैं। 'जो विचारा जाये' उसे विचार कहते हैं / अथवा यह वस्तु चेतन है और यह वस्तु चेतन नहीं है, इस प्रकारके विवेकको विचार कहते हैं / अथवा प्राकृत 'वियार' पदका एक संस्कृतरूप विकार भी होता है। विकृत होनेवाले भावको विकार कहते हैं / ऐसे विकारसे रहित, अथवा विवेकरूप विचारसे रहित तत्त्वका ध्यान करनेवाला पुरुष शुद्ध आत्माको नहीं प्राप्त कर पाता है। प्रश्न-क्या करता हआ नहीं प्राप्त कर पाता है ? उत्तर-'णिच्चं चिय झायमाणो हु' अर्थात् नित्य ही ध्यान करता हुआ नहीं कर पाता है। इसलिए वस्तु-तत्त्वको जानकर संसार, शरीर और इन्द्रिय-भोगोंसे विरक्त होकर विषयसुखाभासमय, आकुलताका उत्पादक अनादिअनन्त दुःखोंसे मूच्छित विषय-सुखसे विपरीत जो अतीन्द्रिय आत्मसमुत्पन्न, अनाकुलतारूप मोक्ष-सुख है, उसमें ध्याता पुरुषको अनुरक्त होना चाहिए / यह इस गाथाका तात्पर्यार्थ है // 47 // अब सूत्रकार जड़-स्वरूप देहसे ममत्व करनेवाले बहिरात्माके स्वरूपका निरूपण करते हैंअन्वयार्थ-(देहो) शरीर (सया) सदाकाल (मुक्खो) मूर्ख है, (विणासरूवो) विनाशरूप है,