SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वसर भाग्यहीन: पुरुषों रत्नं न प्राप्नोति, तथा मिथ्यात्वराग-द्वेषाविभावोपाजितमानावरणाविकर्मपटलावृतो जीव स्वशुद्धात्मरत्नं न लभते चतुर्गतिसंसारसमुद्रेऽतीवदुर्लभत्वादिति मत्वा बानपूर्वकमभेदभावना कर्तव्या भव्येनेति भावार्थः।।४६॥ .अथ ध्याता तत्वं ध्यायमानोऽपि देहसुखानुरक्तः सन् शुद्धमात्मानं न लभते, इति प्रति पादयति मूलगाथा-देहसुहे पडिबद्धो जेण य सो तेण लहइ ण हु सुद्धं / / तच्चं वियाररहियं णिच्चं चिय झायमाणो हु // 47 // संस्कृतच्छाया-देहसुखे प्रतिबद्धो येन च स तेन लभते न खु शुद्धम् / तत्त्वं विकाररहितं नित्यमेव ध्यायमानो हि // 47 // टीका-'देहसुहे' इत्यादि / तद्यथा-'बेहसुहे परिबद्धो जेण य सो तेण लहइण ह सुद्धं' येन कारणेन देहसुखे सुख-सत्ता-चैतन्य-बोषाविप्राणचतकात्मकवेहाद विलक्षणोऽशुद्धन्द्रियादिवशप्राणमयो देहोऽस्य देहस्य सुखें तस्मिन् देहसुखे प्रतिबद्धः प्रत्यासक्तः, तेन कारणेन स एव ध्यातापि आर्गे कहै हैं-देहसुखविर्षे आसक्त ध्यान करता हू शुद्ध आत्माकू नाहीं प्राप्त होय है.. भा० व०-देहसुखविर्षे आसक्त ते पुरुष शुद्ध तत्त्वकू प्रगट नांहीं प्राप्त होय है / कैसा? तत्त्व विकार-रहितकं नित्य ध्यायमान ह। जा कारणते देह-सखविर्षे सख सत्ता चैतन्य बोधादिक शुद्ध प्राण-चतुष्कात्मक देहादि-विलक्षण, अर अशुद्ध इंद्रियादि दशप्राणमय देहका सुख ता विर्षे आसक्त ता कारणकरि सो ही ध्याता हू प्रगट निश्चित शुद्धात्मतत्त्वकू नांही प्राप्त होय है / कैसा है तत्त्व ? विकार-रहित ताका जो भाव सो तत्त्वकू विचारकरि वेदने योग्य जानने योग्य वस्तु चेतन अर या वस्तु अचेतन या प्रकारकरि ये विकार ता विकार-रहित / कहा करता? नित्य घ्यायमान प्रगट जैसें होय तैसें // 47 // प्रश्न-किसके समान प्राप्त नहीं कर पाता है ? उत्तर-भाग्य-विहीन पुरुषके समान / जैसे भाग्यसे हीन पुरुष रत्नको प्राप्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, राग, द्वेषादि भावोंसे उपार्जित ज्ञानावरणादि कर्म-पटलसे आच्छादित जीव अपने शुद्ध आत्म-रत्नको नहीं प्राप्त कर पाता है, क्योंकि चतुर्गतिरूप संसारसमुद्रमें उसे पाना अत्यन्त दुर्लभ है। - ऐसा जानकर भव्यपुरुषको ज्ञानपूर्वक अभेद-रत्नत्रयकी भावना करनी चाहिए। यह इस गाथाका भावार्थ है // 46 // ___अब ध्यान करनेवाला पुरुष तत्त्वका ध्यान करता हुआ भी यदि शारीरिक सुखमें अनुरक्त हो तो शुद्ध आत्माको नहीं प्राप्त कर पाता है, यह बतलाते हैं. अन्वयार्थ-(वियार-रहियं) विचार-रहित (तच्च) तत्त्वको (णिच्च) नित्य (चिय) ही (झायमाणो हु) निश्चयसे ध्यान करता हुआ भी (जेण) यतः (देहसुहे) शरीरके सुखमें (पडिबद्धो) अनुरक्त है (तेण) इसलिए (सो) वह (सुद्ध) शुद्ध आत्मस्वरूपको (ण हु) नहीं (लहइ) प्राप्त कर पाता है। ___टीकार्य-'देहसुहे पडिबद्धो' इत्यादि गाथाका अर्थ व्याख्यान करते हैं / यथा-'देहसुहे पडिबद्धो जेण य सो तेण लहइण हु सुद्ध' अर्थात् जिस कारणसे कि सुख, सत्ता, चैतन्य और बोध आदि
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy