________________ पञ्चमं पर्व . .. रत्नत्रयात्मकसुनिर्मलमोक्षमार्गे संसारसागरसमुत्तरणकपोते। तेऽमसिंह स्वतरूदभवमुक्तिलिप्सो गन्तुं समुद्यतमति कुरु पापभीरो॥ . (इत्याशीर्वादः) अथ भावभुतमन्तरेण बाह्यध्यानस्थितोऽप्यात्मानं न जानातीति दर्शयतिमूलगाथा-झाणढिओ हु जोई जइ णो संवेइ णियय-अप्पाणं / तो ण लहइ तं सुद्धं भग्गविहीणो जहा रयणं // 46 // .. संस्कृतच्छाया-ध्यानस्थितो हि योगी यदि नो संवेत्ति निजकात्मानम्।.. . तु न लभते तं शुद्धं भाग्यविहीनो यथा रत्नम् // 46 // टीका-शाणदिओ' इत्यादि / तथाहि-व्यानस्थितः खलु यदि चेद्योगी ध्याता पुरुषो ध्यानस्थितः सामान्यध्याने स्थितः ध्यानस्थितोऽपि सन् निजात्माऽयं परत्माऽयं चेति न जानाति स तमेव शुद्धात्मानं तदा ध्यानकालेऽपि न लमते, न प्राप्नोति / किं क इव ? यथा भाग्येन हीनो हे पापभीरु, अमरसिंह ! यदि तुम आत्म-वृक्षसे उत्पन्न होनेवाले मुक्तिरूपी फलको पानेके इच्छुक हो तो संसार-सागरसे पार उतारनेवाले अद्वितीय पोतरूप रत्नत्रयात्मक अतिनिर्मल इस मोक्षमार्गमें गमन करनेके लिए अपनी बुद्धिको उद्यत करो // 1 // --- (इति आशीर्वादः) आगें शुरू ही कू कहें हैं भा० व०-प्रगट जोगी जे हैं ते ध्यानविर्षे तिष्ठे हू जो निज आत्मा कू नाहीं जानें हैं तो तिह शुद्ध आत्माकू नाहीं प्राप्त हो है / कौनकी नाई ? भाग्यहीन जैसे रतनकों नाहीं प्राप्त होय, तैसें // 46 // ___ अब भावश्रुतके बिना बाह्य ध्यानमें स्थित भी पुरुष आत्माको नहीं जानता है, यह दिखलाते हैं अन्वयार्थ (झाणट्ठिओ) घ्यानमें स्थित (जोई) योगी (जइ) यदि (हु) निश्चयसे (णिययअप्पाणं) अपने आत्माको (णो) नहीं (संवेइ) अनुभव करता है (तो) तो वह (तं) उस (सुद्धं) शुद्ध आत्माको (ण) नहीं (लहइ) प्राप्त कर पाता है। (जहा) जैसे (भग्गविहीणो) भाग्यहीन मनुष्य (रयणं) रत्नको नहीं प्राप्त कर पाता है। ____टीकार्थ-'झाणट्ठिओ हु जोई' इत्यादि गाथाका अर्थ-व्याख्यान करते हैं-सामान्यरूपसे ध्यानमें स्थित होता हुआ भी यदि कोई ध्याता योगी 'यह निज आत्मा है, और यह पर आत्मा है' ऐसा नहीं जानता है तो वह उस ध्यान-कालमें भी अपने उस शुद्ध आत्माको नहीं प्राप्त कर पाता है।