________________ तत्वसार अब पुनरपि तस्यैव निश्चलचित्तस्य शानिनो माहात्म्यं वर्शयति__ मूलगाथा-रायद्दोसादीहि य डहुलिज्जइ णेव जस्स मणसलिलं / सो णियतच्च पिच्छइ ण हु पिच्छइ तस्स विवरीओ // 40 // संस्कृतच्छाया-रागद्वेषाश्च चाल्यते नेव यस्य मनःसलिलम् / स निजतत्त्वं पश्यति न खलु पश्यति तस्माद् विपरीतः // 40 // .. टीका-रायद्दोसादीहि' इत्यादि, 'रायद्दोसादोहि य रहुलिज्जइ णेव जस्स मणसलिलं' मियात्वाशानभावोपार्जितज्ञानावरणादि-द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मादिदोषरहितपरमात्मनो विलक्षणे रागद्वेषाद्यश्च यस्यान्तरात्मनो मनःसलिलं मनोजलं नैव अभ्यते व्याकुलीभवति नेव मलिनीभवति / स किं करोति ? सो णियतच्वं पिच्छई' स एव परमतत्त्वज्ञानी चिच्चमत्कारमात्रनिजशुद्धात्मतत्वं पश्यति नित्यमनुभवति / तद्विलक्षणः किं करोति ? 'ण हु पिच्छा तस्स विव आगं कहै हैं—जाका आत्मा राग-द्वेषकरि चलायमान नाही होय है सो ही आत्मा निज तत्त्वकू देखे है, अन्य नांही देखे है भा० व०-जा अंतरात्माका मनरूप जल जो है सो राग-द्वेषादिकरि नाही क्षोभकू प्राप्त होय है, व्याकुल नाही होय है, मलिन नाही होय है, सो ही परमतत्त्वका जाननेवाला ज्ञानी चित्चमत्कारमात्र निज शुद्धात्मतत्त्वकू देखे है, नित्य अनुभव करे है / अर तातें विलक्षण कहा करें है ? परमब्रह्मके जाननेवालेनित विपरीत बहिरात्मा स्व-पर स्वरूप ताहि निश्चयकरि नाही देखें है, नांही जाने है // 40 // अब फिर भी उसी निश्चल चित्तवाले ज्ञानी पुरुषका माहात्म्य दिखलाते हैं अन्वयार्थ-(जस्स) जिसका (मणसलिलं) मनरूपी जल (राग़द्दोसादीहि य) रागद्वेष आदि के द्वारा (णेय) नहीं (डहुलिज्जइ) डंवाडोल होता है (सो) वह (णियतच्च) निजतत्त्वको (पिच्छइ) देखता है / (तस्स ) इससे (विवरीओ) विपरीत पुरुष (ण हु) निश्चयसे नहीं ( पिच्छइ ) देखता है। _____टीकार्य-'रागदोसादीहि य' इत्यादि गाथाका अर्थ-व्याख्यान करते हैं-राग-द्वेष आदिके द्वारा जिसका मनःसलिल डंवाडोल नहीं होता है, अर्थात् मिथ्यात्व, और अज्ञान भावसे उपाजित ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मादि दोषोंसे रहित परमात्मासे विलक्षण राग-द्वेषादिके द्वारा जिस अन्तरात्माका मनःसलिल-मनरूपी जल क्षोभको प्राप्त नहीं होता, व्याकुल नहीं होता और मलिन नहीं होता है। प्रश्न-वह क्या करता है ? उत्तर-'सो णियतच्चं पिच्छइ' अर्थात् वही परमतत्त्वज्ञानी चिच्चमत्कारमात्र निज शुद्ध आत्मतत्त्वको देखता है, अर्थात् नित्य अनुभव करता है। प्रश्न-इससे विलक्षण या विपरीत ज्ञानी क्या करता है ? .. उत्तर-ण हु पिच्छइ तस्स विवरीओ' अर्थात् परब्रह्मरूप आत्मतत्त्वको जाननेवाले उस