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________________ तत्वसार रोजो' परमब्रह्मवेदिनस्तस्माद विपरीतो बहिरात्मा स्व-परस्वरूप न कुटं निश्चयेन पश्यति न जानातोति मत्वा राग-द्वेष-मोहादिदोषरहितात सकलविमलकेवलज्ञानाचनम्तगुणसहितात् परमास्मनः सकाशाद् विपरीतभूतराग-द्वेष-मोहत्यागेनासन्नभव्यजनेनान्तरात्ममा निर्विकल्पचित्तेन निरन्तरं भवितव्यमिति भावार्थः // 40 // अथ दृष्टान्त-वाष्टन्तिाम्यां तमेवार्थ दर्शयतिमुलगाथा-सर-सलिले थिरभूए दीसइ पिरु णिवडियं पि जह रयणं / . मण-सलिले थिरभूए दीसइ अप्पा तहा विमले // 41 // संस्कृतच्छाया-सरःसलिले स्थिरीभूते दृश्यते व्यक्तं निपतितमपि यथा रत्नम् / ___ मनःसलिले स्थिरीभूते दृश्यते आत्मा तथा विमले // 41 // टीका-'सर-सलिले' इत्यादि, पवखण्डनारूपेण व्याल्यानं क्रियते–'सर-सलिले थिरभूए आगें कहै हैं जैसें सरोवरका जल थिर भये सरोवरविर्षे पड़या रतन दीखे है, तैसें ही मनोसरोवरकू स्थिर होत संतें आत्मा निश्चयकरि दीखे है भा० व०--सरोवर-जल है सो स्थिरभूत होत संत जैसें निश्चयकरि पड़या हुवा रतनकू प्रगट देखिये है। या दृष्टान्तकरि कहै हैं-तैसें ही मन सो ही भया मानसरोवरका जल ता विर्ष देखिये है। कौनकू ? आत्माकू। 'अत सातत्यगमने' धातुको यह प्रयोग है, स्वयमेव ही मात्माकरि आत्मा विर्षे आत्माकू निरन्तरपणा करि गमन करे, प्राप्त होय सो आत्मा जानना। कैसा है मनजल है सो स्थिरीभूत होत संत मिथ्यात्व रागादिमशानभावकरि उपार्जित ज्ञानावरणादिक कर्मोदय पवनका समूह मंद होत संत निस्तरंग निश्चल निराकुल होत संत / 'कथम्भूते सरोवरे' कहिए कैसे सरोवरविर्षे ? विमल कहिए पाप-कर्ममल-रहित ऐसा // 41 // अन्तराल्मासे विपरीत जो बहिरात्मा है, वह स्व और परके स्वरूपको न स्फुटरूप निश्चयनयते देखता है, और न जानता है। . ऐसा जानकर रागद्वेष मोहादि दोषोंसे रहित सकल विमल केवलज्ञानादि अनन्तगुणोंसे युक्त परमात्मासे विपरीत स्वरूपवाले रागद्वेष मोहका त्यागकर निकट भव्य अन्तरात्मा पुरुषको निरन्तर निर्विकल्पचित्त होना चाहिए / यह इस गाथाका भावार्थ है // 40 // * अब सूत्रकार दृष्टान्त और दार्टान्तके द्वारा उसी अर्थको दिखाते हैं अन्वयार्थ-जह) जैसे (सरसलिले) सरोवरके जलके (थिरभूए) स्थिर होनेपर (णिवडियं पि) सरोवरमें गिरा हुआ भी (रयणं) रत्न (णिरु) नियमसे (दीसइ) दिखाई देता है, (तहा) उसी प्रकार (मणसलिले) मनरूपी जलके (थिरभूए) स्थिर होनेपर (विमले) निर्मल भावमें (अप्पा) आत्मा (दीसइ) दिखाई देता है। टीकार्य-'सरसलिले' इत्यादि गाथाका व्याख्यान करते हैं'सरसलिले थिरभूए दीसइ णिरु णिवडियं पिजह रयणं' अर्थात् जैसे सरोवरके जलके स्थिरी
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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