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________________ तत्वसार टीका-'इय एवं जो' इत्यादि, पवखण्डनारूपेण टीकाकारेण मुनिना व्याख्यानं क्रियते'इय एवं जो बुजाइ वत्थसहावं' इति पूर्वोक्तप्रकारेण यः स्वसंवेदनशानी भव्योऽन्तरात्मा सन् बुध्यते जानाति / किम् ? वस्तुस्वभावं वस्तुस्वरूपं / काम्यां करणभूताम्याम् ? 'णएहि वोहिं पि' निश्चय-व्यवहारनयाभ्यां द्रव्याथिक-पर्यायाथिकनयाभ्यां वा द्वाभ्यामपि कृत्वा / 'तस्स मणो हुलिज्जइ ण राय-वोसेहि मोहेहि तस्य कथम्भूतस्य ? परिज्ञातहेयादेयवस्तुस्वरूपस्य तस्येव ज्ञानिनो मनो न क्षुभ्यते न चाल्यते न मलिनीक्रियते / काम्यां केन वा ? वीतराग-निर्विकल्पनिर्विकार-चिदानन्दैकस्वभावपरमात्मनो विलक्षणाभ्यां राग-द्वेषाम्यां कृत्वा निर्मोह-शुद्ध-बुद्धकस्वरूपात्मनो विपरीतेन मोहेन चेति मत्वा स्वशुद्धात्मनो भिन्नस्य विकल्पात्मकस्य मनसः स्थिरीकरणार्य सहनशुद्ध-बुद्धकातीन्द्रियनिरञ्जननिजात्मतत्त्वसम्यावानज्ञानानुचरणाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्वि - कल्पात्मकनिर्विकल्पवीतरागपरमसमाधिसंजातस्वपरप्रकाशकातीन्द्रियस्वसंवेदनशानमेवोपादेयमिति सर्वथा मनसा स्मरणीयं वचसा वक्तव्यं कायेन तवनुकूलाचरणमाचरणीयमित्युपादेयलक्षणं सर्वत्र यथावसरे ज्ञातव्यं परिजातंतत्त्वैभव्यजनैरिति भावार्थः // 39 // टोकार्थ-'इय एवं जो बुज्झइ' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैं-इस पूर्वोक्त प्रकारसे जो स्वसंवेदनज्ञानी भव्य अन्तरात्मा जानता है। प्रश्न-किसे जानता है ? उत्तर-वस्तु स्वभाव या पदार्थके स्वरूपको। - . : प्रश्न-किन करणभूत साधकतम कारणोंसे जानता है ? उत्तर-णएहिं दोहिं पि' अर्थात् निश्चय और व्यवहार नयसे, अथवा द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक इन दोनों ही नयोंसे जानता है। "तस्स मणो डहुलिज्जइ ण राय-दोसेहिं मोहेहिं' अर्थात् उस पुरुषका मन राग, द्वेष और मोहसे डंवाडोल नहीं होता है। . शंका-किस प्रकारके उस पुरुषका मन डंवाडोल नहीं होता है ? उत्तर-जिसने हेय-उपादेयरूप वस्तुस्वरूपको भलीभांतिसे जान लिया है, उसी ज्ञानी पुरुषका मन न क्षोभको प्राप्त होता है, न चलायमान होता है और न मलिन ही किया जाता है / प्रश्न-किसके द्वारा चलायमान नहीं होता है ? उत्तर-वीतराग निर्विकल्प निर्विकार चिदानन्देकस्वभावी परमात्मासे विलक्षण-विपरीत स्वभाववाले राग-द्वेषके द्वारा, तथा निर्मोह शुद्ध-बुद्धकस्वरूप आत्मासे विपरीत मोहके द्वारा ज्ञानी पुरुषका मन चलायमान नहीं होता है। ऐसा जानकर अपने शुद्ध आत्मासे भिन्न विकल्पात्मक मनके स्थिर करनेके लिए सहज शुद्धबुद्धकरूप अतीन्द्रिय निरंजन निजात्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप अभेद रत्नत्रयात्मक, निर्विकल्पात्मक, निर्विकल्प वीतराग समाधिसे उत्पन्न हुआ स्व-पर प्रकाशक अतीन्द्रिय स्वसंवेदनरूप ज्ञान ही उपादेय है, ऐसा सर्व प्रकारसे मानकर तत्त्वके जानकार भव्यजनोंको उसीका मनसे स्मरण करना चाहिए, क्चनसे उसीका कथन करना चाहिए और कायसे तदनुकूल आचरण करना चाहिए। . यह उपादेयलक्षण वस्तुस्वरूप यथावसर सर्वत्र जानना चाहिए। यह इस गाथाका भावार्थ है // 39 //
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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