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________________ तत्वसार पुनश्च किविशिष्टास्ते जीवाः? 'सगुणेहि सब्यसरिसा गाणमया णिच्छयणएण' सकलविमललोकालोकप्रकाशकानाधनन्तकेवलज्ञान-केवलदर्शनादिभिः स्वगुणैरात्मगुणेश्च कृत्वा सर्वे जीवाः सदृशाः समानाः। पुनरपि कथम्भूताः ? ज्ञानमयाः केवलज्ञानेन निवृता निष्पन्ना निष्पादिताः ज्ञानमयाः / केन नयेन ? शुद्धनिश्चयनयेन / इति ज्ञात्वा शुद्धबुद्धकस्वभावा एवंविधाः सर्वे जीवाः सर्वप्रकारेणोपादेया भवन्तीति तात्पर्यायः // 38 // अथैवंविषभेदज्ञानिनां किं फलं भवतीति प्रकटयतिमूलगाथा-इय एवं जो बुज्झइ वत्थुसहावं णएहिं दोहिं पि / तस्स मणो डहुलिज्जइ ण राय-दोसेहिं मोहेहिं // 39 / / संस्कृतच्छाया-इत्येवं यो बुध्यते वस्तुस्वभावं नयाभ्यां द्वाभ्यामपि / तस्य मनश्चाल्यते न राग-द्वेषाभ्यां मोहैः // 39 // असें पूर्वोक्त दोय नयकरि वस्तुका स्वरूपकू जाने है ताका मन नांही डुलं है, असें कहै हैं भा० व०-पूर्वोक्त प्रकारकरि जो स्वसंवेदन ज्ञानी भव्य अन्तरात्मा भया संता जाने है। कहा जाने है ? वस्तुस्वभावं कहिए वस्तुका स्वभाव। काहे करि ? करणरूप भई निश्चय-व्यवहार नयनि करि, द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक दोय नयनि करि / कसा ताकै जान्या है हेयोपादेय वस्त-स्व -स्वरूप जानें, असा जो ज्ञानी ताका मन नांहीं चलायमान होय है, क्षोभकू प्राप्त नहीं होय है, मलिन नांही होय है। काहे करि? वीतराग निर्विकार चिदानंद एक स्वभाव परमात्मात विलक्षण असें जे रागीद्वेषी तिनकरि निर्मोह शुद्ध-बुद्ध एक स्वरूप आत्मात विपरीत मोहकरि // 39 // कार चिदानन्दैकस्वरूप परमात्मासे विपरीत सविकारी आत्माके आयुकर्मका विनाश होनेपर अशुद्ध प्राणोंके परित्यागरूप अवस्थाको मरण कहते हैं। इस प्रकारके जन्म और मरणसे विमुक्त या रहित जीव जन्म-मरणविमुक्त कहे जाते हैं। प्रश्न-पुनः वे जीव किस विशेषतावाले हैं ? उत्तर-'सगुणेहि सव्वसरिसा' अर्थात् सम्पूर्ण विमल, लोकालोक-प्रकाशक, अनादि-अनन्त केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि स्वगुण एवं आत्मगुणोंकी अपेक्षा सब जीव समान हैं। प्रश्न-फिर भी वे सब जीव कैसे हैं ? उत्तर-ज्ञानमय हैं। केवलज्ञानसे निर्वृत, निष्पन्न एवं निष्पादित होनेके कारण ज्ञानमय हैं। प्रश्न-किस नयकी अपेक्षा सब जीव समान हैं ? उत्तर-शुद्ध निश्चयनयसे सब जीव समान हैं। ऐसा जानकर शुद्ध-बुद्ध एकत्व भाववाले ऐसे सभी जीव सर्व प्रकारसे उपादेय हैं। यह इस गाथाका भावार्थ है // 38 // अब इस प्रकारके भेदज्ञानी पुरुषोंको क्या फल प्राप्त होता है, यह प्रकट करते हैं अन्वयार्थ-(जो) जो ज्ञानी (दोहिं पि) दोनों ही (णएहिं) नयोंसे (इय एवं) यह इस प्रकारका (वत्थुसहाव) वस्तु-स्वभाव (बुज्झइ) जानता है (तस्स) उसका (मणो) मन (राय-दोसेहिं) रागद्वेषसे (मोहेहिं) और मोहसे (ण डहुलिज्जइ) डंवाडोल नहीं होता है।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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