________________ 82 तत्वसार टीका-रूसइ तूसह णिच्चं 'इत्यादि, 'रूसइ तूसइ पिच्चं इंदियविसएहि बसगो मूढो मूढो बहिरात्माऽज्ञानी नित्यं सर्वकालमहनिशं क्वचित्परद्रव्ये रुष्यति, क्वचित्तुष्यति / कथम्भूतः सन् ? निविषयपरमात्मनः सकाशाद विपरीतः पञ्चेन्द्रियविषयवंशंगतो व्यासक्तः सन् / पुनरपि कि विशिष्टो भवति ? 'सकसाओ अण्णाणी' सकषायः क्रोष-मान-माया-लोभानन्तानुबन्धिनः कषायास्तैः सह वर्तते सकषायोऽज्ञानी, अज्ञानमस्त्यस्यासो अज्ञानी सकषायो भवति, अज्ञानी च भवति / अन्यथा 'गाणी एतो दु विवरीदो' एतस्मात्तु अज्ञानिनः सकाशाद ज्ञानी विपरीतो भवति / कोऽसौ शानी ? स्वसमयोऽन्तरात्मा। इति ज्ञात्वाजानपरसमयत्वकषायेन्द्रियाविदोषेभ्यो विलक्षणवीतरागसर्वज्ञशासनमूलं यत्स्वसंवेदनज्ञानं सकलविमलकेवलज्ञानस्य कारणभूतं तदेव ज्ञानं सर्वप्रकारेणोपादेयमिति भावार्थः // 35 // कषाय-युक्त (अण्णाणी) अज्ञानी पुरुष (णिच्च) नित्य (रूसइ) किसीमें रुष्ट होता है और किसीमें (तूसइ) सन्तुष्ट होता है / किन्तु (णाणी) ज्ञानी पुरुष (एत्तो दु) इससे (विवरीदो) विपरीत स्वभाववाला होता है। . टीकार्थ-रूसइ तूसइ णिच्च' इत्यादि गाथाका अर्थ कहते हैं-'रूसइ तूसइ णिच्चं इंदियविसएहि वसगओ मूढो' अर्थात् मूढ बहिरात्मा अज्ञानी पुरुष नित्य सर्वकाल रात-दिन किसी . अनिष्ट प्रतीत होनेवाले परद्रव्यमें रुष्ट होता है अर्थात् द्वेष करता है और किसी इष्ट प्रतीत .. होनेवाले परद्रव्यमें सन्तुष्ट होता है, अर्थात् प्रसन्न होकर राग करता है। प्रश्न-कैसा होता हुआ वह किसीमें द्वेष और किसीमें राग करता है ? उत्तर-निविषयरूप परमात्मासे विपरीत जो पांचों इन्द्रियोंके विषय हैं, उनके वशमें गया हुआ यह इन्द्रिय-विषयासक्त जीव किसी वस्तुमें द्वेष और किसी वस्तुमें राग करता है। प्रश्न-और यह इन्द्रिय-विषयासक्त जीव कैसा होता है ? उत्तर-'सकसाओ अण्णाणी' सकषाय और अज्ञानी होता है / अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ रूप कषायोंके साथ जो रहता है, सकषाय कहलाता है / तथा अज्ञान जिसके पाया जाये, वह अज्ञानी कहलाता है। इन्द्रिय-विषयासक्त जीव सकषाय भी है और आत्मज्ञानसे रहित होनेके कारण अज्ञानी भी है। अन्यथा 'णाणी एत्तो दु विवरीदो' अर्थात् इस अज्ञानी और सकषाय जीवसे ज्ञानी विपरीत होता है। प्रश्न-ज्ञानी कौन कहलाता है ? उत्तर-जो स्व-समय-रत अन्तरात्मा है, वह ज्ञानी कहलाता है। ऐसा जानकर अज्ञान, पर-समयत्व, कषाय, इन्द्रियादि दोषोंसे विलक्षण, वीतराग, सर्वज्ञशासनका मूल जो स्वसंवेदन ज्ञान है और जो सम्पूर्ण विमल केवलज्ञानका कारणभूत है, वही वीतराग विज्ञान सर्व प्रकारसे उपादेय है / यह इस गाथाका भावार्थ है // 35 // *