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________________ तत्वसार 81 टीका-'परदन्वं देहाई' इत्यादि, परखण्डनारूपेण व्याख्यानं कियते। तथाहि-परखव्यं देहादि, देह आदिय॑स्य तदेहादि / 'कुणइ मर्मात्तं च जाम तेसुरि' यावत्कालं तस्मिन् परब्रव्ये तस्योपरि वा ममता मूच्छी च करोति / 'परसमयरदो तावं' तावत्कालं जीवोऽयं परसमयरतः सन् किं करोति ? 'बादि कम्मेहि विविहि' बध्यते वेष्टपते। के? कर्मभिः द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मभिः, मूलोत्तरप्रकृतिभिर्वा विविधैर्नानाप्रकारः। तथा च बढो जीवश्चतुर्गतिषु चतुरशोतिलक्षयोनिषु वा भ्रमितोऽयं जीवः / तस्मात्कारणाच्छुडबुबैकचिज्ज्योतिस्वरूपानाकुलत्वलक्षणातीन्द्रियसुखामृतरससागरान्तर्भूतात्मसुगुणास्पदपरमात्मनः सकाशाद विलक्षणं पसव्यं त्रिषा मनोवचनकायेन तत्त्याज्यं भवतीति भावार्थः॥३४॥ अथायं जीवः परसमयः सन् किं किं करोतीति मनसि सम्प्रषार्य सूत्रकारः सूत्रमिदं प्रतिपावयतिमूलगाथा-रूसइ तूसइ णिच्चं इंदियविसएहि वसगओ मूढो / सकसाओ अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो // 35 // संस्कृतच्छाया-रष्यति तुष्यति नित्यमिन्द्रियविषयः वशंगतो मूढः। ... . सकषायोऽज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः // 35 // आगें अज्ञानीका लक्षणकू कहै हैं भा० व०–अज्ञानी मूढ बहिरात्मा सर्वकाल विष कोइक परद्रव्य विर्षे तो रूस है, अर कोई परद्रव्य विर्षे प्रसन्न हो है। कैसा भया संता? निविषय परमात्माका निकटतें विपरीत ऐसे पांच इन्द्रियनिके विषयकै वशकू प्राप्त भया आसक्त भया संता। बहुरि कैसा होय है ? कषाय-सहित क्रोध मान माया लोभ अनंतानुबंधी कषायनि करि साथि वर्ते सो अज्ञानी है / अर या अज्ञानीत विपरीत ज्ञानी स्वयमेव अंतरात्मा होय है // 35 // टीकार्य–'परदव्वं देहाई' इत्यादि गाथाका व्याख्यान करते हैं / यथा-देह है आदिमें जिनके ऐसे कुटुम्ब, परिवार और धनादिको देहादि कहते हैं। 'कुणइ मत्तिं च जाम तेसुरि' जितने काल तक उन देहादि परद्रव्योंके ऊपर ममता अर्थात् मूर्छा करता है, 'परसमयरदों तावं' उतने काल तक यह जीव परसमय-रत कहलाता है। , . प्रश्न-पर-समय-रत होने पर वह क्या करता है ? उत्तर-'बज्झदि कम्मेहि विविहेहिं' अर्थात् नाना प्रकारके द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मोंसे, अथवा मूल और उत्तरकर्म-प्रकृतियोंके द्वारा बंधता है, वेष्टित होता रहता है / .. उक्त प्रकारसे कर्मोके द्वारा बंधा हुआ यह जीव चारों गतियों में, अथवा चौरासी लाख योनियोंमें परिभ्रमण करता रहता है। इस कारण शुद्ध बुद्ध एकमात्र चैतन्यज्योतिस्वरूप, अनाकुलता लक्षण वाले अतीन्द्रिय सुखामृतरसरूप-सागरके अन्तर्भूत आत्मिक सुगुणोंके स्थानभूत परमात्मासे विलक्षण जो पर-द्रव्य है, वह मन वचन कायरूप तीनों योगोंसे त्यागनेके योग्य है, यह इस गाथाका भावार्थ है // 34 // .. अब यह जीव पर-समय-रत होता हुआ क्या-क्या करता है ? यह प्रश्न मनमें धारण कर सूत्रकार उत्तर-स्वरूप यह वक्ष्यमाण गाथासूत्र प्रतिपादन करते हैं ' अन्वयार्थ-(इंदिय-विसएहिं) इन्द्रियोंके विषयोंमें (वसगओ) आसक्त (मूढो) मूढ़ (सकसाओ) 11
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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