________________ तत्वसार टीका-'णोकम्मकम्म' इत्यावि, पवखण्डनारूपेण टीकाकारेण मुनिना व्याख्यानं क्रियते। तद्यथा-स एव परमात्मा कथम्भूतः? 'णोकम्म-कम्मरहिनो' नोकर्माणि पञ्चविषशरीराणि, कर्माणि मानावरणाअष्टविधानि द्रव्यकर्माणि, तैः समस्तकर्मनभावः रहितः / पुनरपि किंविशिष्टः ? 'केवलणाणाइ गुणसमिद्धो' निश्चयेन निजस्वरूपप्रकाशको व्यवहारेण लोकालोकादिपरस्वरूपप्रकाशकः केवलज्ञानानन्तगुणः समृतः सम्पूर्णः परमात्मा मुक्ती तिष्ठति सोऽहं एवंगुणविशिष्टः परमब्रह्मा स एवाहम् / पुनश्च किरूपः ? सिद्धो सिदः कृतकृत्यो भरितावस्थः। पुनरपि कीदृशः ? 'सुरो' रागादिविभाव कल्पनाकलाभावात् शुद्धः / पुनश्च कोड ? 'णिच्चो' कर्मोदयजनितजन्ममरणाविरहितत्वान्नित्यः / तथैव सहजशुद्धचिदानन्दैकरूपत्वात एकोऽद्वितीयस्वरूपः। पुनश्च कि लक्षणः ? 'णिरालंबो' कर्मोदयावलम्बनरहितत्वान्निराकम्बोऽसहायः, निर्गतान्यालम्बनानि यस्मादसौ निरालम्बः, तस्मिन्, निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसंजातसहजानन्देकरूपनिराकुलत्वलक्षणसुखामृतपूरपूरिते निजात्मनि निरन्तरं भावना भावनोया भव्यैरिति भावार्थः // 27 // टीकार्य-'णोकम्म-कम्मरहिओ' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैं। यथा-वह परमात्मा कैसा है ? ‘णोकम्म-कम्मरहिओ' नोकर्म-पांच प्रकारके शरीर, और कर्मज्ञानावरणादि आठ प्रकारके द्रव्यकर्म, तथा समस्त कर्म-जनित रागादि भावोंसे रहित है। प्रश्न-फिर भी वह कैसा है? उत्तर-'केवलणाणाइगुणसमिद्धो' निश्चयनयसे निज-स्वरूप-प्रकाशक, और व्यवहारनयसे लोकालोकादि पर-स्वरूप प्रकाशक केवलज्ञानादि अनन्त गुणोंसे समृद्ध अर्थात् सम्पूर्ण रूपसे सम्पन्न परमात्मा मुक्तिमें रहता है, वैसा ही उक्त गुणोंसे विशिष्ट परमब्रह्म मैं ही हूँ। प्रश्न-पुनः मेरा क्या स्वरूप है ? उत्तर-सिद्ध हूँ, कृतकृत्य हूँ और सर्व गुणोंसे परिपूर्ण अवस्था वाला हूँ। प्रश्न-फिर भी कैसा हूँ? उत्तर-रागादि विभाव कल्पनाके कलंकका अभाव होनेसे शुद्ध हूँ। प्रश्न-फिर भी कैसा हूँ? उत्तर-कर्मोदय-जनित जन्म-मरणादिसे रहित होनेके कारण नित्य हूँ। तथैव सहज शुद्ध चिदानन्देकरूप होनेसे एक अर्थात् अद्वितीय रूप हूँ। प्रश्न--और मेरा क्या लक्षण है ? उत्तर-णिरालंबो' कर्मोदयरूप अवलम्बसे रहित होनेके कारण निरालम्ब हूँ। अर्थात् परकी सहायतासे रहित हूँ। जिसके सभी प्रकारके आलम्बन निकल गये हैं, उसे निरालम्ब कहते हैं। निश्चयनयसे उस वीतराग निर्विकल्प, समाधि-संजात सहजानन्दैकरूप निराकुलत्व लक्षणवाले सुखामृतसे परिपूर्ण निज आत्मामें भव्य जीवोंको निरन्तर भावना भानी चाहिए / यह उस गाथाका भावार्थ है // 27 //