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________________ तत्त्वसार .. अथ पुनरपि विशेषेणामुमेवार्थ प्रकटपति-.. मूलगाथा-सिद्धोहं सुद्धोहं अणतणाणाइसमिद्धो हं। देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य // 28 // संस्कृतच्छाया-सिद्धोऽहं शुद्धोऽहं जमन्तममाविसमृसोऽहम् / देहप्रमाणोमित्योऽसंस्पदेशोऽमूर्तश्च // 28 // टीका-सिद्धोहमित्यादि, पखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते / तद्यथा-शुद्धनयेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणात्मकसिद्धस्वरूपत्वात् सिद्धोऽहम्, निष्कर्मात्मस्वरूपाविपरीतकर्मोवयजनितराग-द्वेषमोहादिमलरहितत्वात शुद्धोऽहम्, तेनैव नयेन निरावरणानन्तगुणसमूहमयत्वादनन्तज्ञानादिगुणसमृद्धोऽहं भरितावस्थोऽहम् / अनुपचारितासबभूतव्यवहारनयेन पूर्वोपार्जितनिजदेहप्रमाणोऽहम्, तथैवोत्पादव्ययोपाधिकारणभूतकर्मोदयजनितोत्पादव्ययसहितोऽपि शुद्ध निश्चयेन चिदानन्दात्मटोत्कीर्णशायकैकस्वभावत्वान्नित्योऽहम्, तेनैव नयेन लोकाकाशप्रमितासंख्यातप्रवेशोऽहम्, स्पर्शरस-गन्ध-वर्णवतीमूर्तिहेतुभूतनामकर्मोदयोत्पन्नया मूर्त्या युक्तोऽपि निश्चयेन परमानन्दस्वाभाविकपरप्रकाशककेवलज्ञानमयमूर्तित्वाच्च , पौद्गलिकपञ्चेन्द्रियविषयज्ञानेनाग्राह्यत्वावमूर्तोऽहमिति आगं शुद्धभावकू कहै हैं भा० व०–मैं सिद्ध हूँ, मैं शुद्ध, मैं अनन्तज्ञानादिक गुणनिकरि भर्या हूँ, अर चरम देहप्रमाण हूँ, नित्य हूँ, असंख्यप्रदेशी हूं, बहुरि अमूर्तीक हूँ॥२८॥ अब फिर भी विशेषरूपसे इसीही उक्त अर्थको प्रकट करते हैं / अन्वयार्थ-(सिद्धोह) मैं सिद्ध हूँ, (सुद्धो हं) में शुद्ध हूँ, (अणंतणाणाइसमिद्धो हं) मैं अनन्त ज्ञानादिसे समृद्ध हूँ, (देहपमाणो) मैं शरीर-प्रमाण हूं, (णिच्चो) मैं नित्य हूं, (असंखदेसो) में असंख्य प्रदेशी हूँ, (अमुत्तो य) और अमूर्त हूं। टोकार्य–'सिद्धो ह' इत्यादि गाथाका व्याख्यान करते हैं-यथा-शुद्धनयसे केवलज्ञानादि अनन्तगुणात्मक सिद्धोंके समान स्वरूप वाला होनेसे मैं सिद्ध हूँ, निष्कर्म आत्मस्वरूपसे विपरीत कर्मोके उदयसे उत्पन्न हुए राग, द्वेष, मोह आदि मलोंसे रहित होनेके कारण मैं शुद्ध हूँ, उसी शुद्धनयकी अपेक्षा निरावरण अनन्त गुणोंके समूहमय होनेसे मैं अनन्तज्ञानादि गुणोंसे समृद्ध हूँ, अर्थात् अनन्त गुणोंसे भरी हुई अवस्थावाला हूँ। अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनयसे पूर्व कर्मोपार्जित अपने शरीरके प्रमाण हूं, तथैव उत्पाद-व्ययरूप उपाधिके कारणभूत कर्मोदयसे उत्पन्न उत्पाद और व्ययसहित होता हुआ भी शुद्ध निश्चयनयसे चिदानन्दस्वरूप टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावी होनेसे मैं नित्य हूँ, उसी ही शुद्ध निश्चयनयसे लोकाकाश-प्रमाण असंख्यात प्रदेशवाला मैं हूँ, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णवाली मूत्तिके कारणभूत नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई मूत्तिसे संयुक्त होता हुआ भी तथा निश्चयनयसे परमानन्द स्वाभाविक, पर-प्रकाशक केवलज्ञानमयी मूत्तिवाला होनेसे पौद्गलिक पांच इन्द्रियोंके विषयभूत ज्ञानके द्वारा अग्राह्य होनेसे मैं अमूर्त हूं। इसप्रकार
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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