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________________ तत्त्वसार सिद्धस्वरूपः / पुनः किविशिष्टः ? परः सर्वोत्कृष्टः / पुनरपि कसम्भूतः ? ब्रह्मा 'ब्रहि वृद्धौ' धातोः प्रयोगः, स्वज्ञानाविगुणेन बृहति वृद्धि गच्छतीति ब्रह्मा, परब्रह्मस्वरूपः। इति मत्वा भव्यवरपुण्डरीकेण त्रिशुद्धपातत्र सिद्धबुकस्वभावे निजात्मनि निरन्तरंभावना कर्तव्येति तात्पर्यार्थः // 25 // अथासौ निजात्मा कीदृशः क्व च तिष्ठतीत्यावेदयतिमूलगाथा-मलरहिओ णाणमओ णिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो / तारिसओ देहत्थो परमो बंभो मुणेयव्वो // 26 // संस्कृतच्छाया-मल-रहितो ज्ञानमयो निवसति सितो यादृशः सिद्धः। तादृशो देहस्थः परमो ब्रह्मा मन्तव्यः // 26 // टीका-'मलरहिमओ गाणमयो' इत्यादि, पवखण्डनारूपेण भट्टारक-श्रीकमलकोत्तिना व्याख्यानं क्रियते / तयथा-'मलरहिमो णाणमयो णिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो' मल-रहितः शुखद्रव्याथिकनयेन द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्ममलाद रहितत्वादिति ज्ञानमयः सकलविमलकेवलज्ञानेन आगें जैसा सिद्धालयविर्षे सिद्ध है तैसा अपना आत्मा जाननां असें कहै हैं— भा० व०-सिद्धालयविर्षे जैसा सिद्ध तिष्ठं है सो कैसा ? मलरहित शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकरि द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म मलरहित अर ज्ञानमय सकल विमल केवलज्ञानकरि पूर्ण है, तैसा ही देहविर्षे तिष्ठता परम कहिए उत्कृष्ट मा जो केवलज्ञानादि लक्ष्मी जिस विर्षे सो परमात्मा परमब्रह्म जाननां / बहुरि शुद्धनयकरि आत्माकू ऐसा ध्यावना // 26 // प्रश्न-फिर भी वह कैसा है ? उत्तर-ब्रह्मा है, अर्थात् परमब्रह्मस्वरूप है। संस्कृत 'बहि' धातुका प्रयोग वृद्धिके अर्थमें होता है। जो अपने ज्ञानादिगुणोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता है, उसे ब्रह्मा कहते हैं। ..: इस प्रकार अपने आत्माको परब्रह्मस्वरूप मानकर भव्योंमें श्रेष्ठ कमल सदृश उत्तम पुरुषको मन वचन कायरूप त्रियोगकी शद्धिसे उस सिद्ध, बकस्वभाववाले निज आत्माकी। न्तर भावना करनी चाहिए। यह इस गाथाका तात्पर्यार्थ है // 25 // अब वह निज आत्मा कैसा है और कहां रहता है ? यह सूत्रकार बतलाते हैं अन्वयार्थ (जारिसो) जैसा (मल-रहिओ) कर्म-मलसे रहित, (णाणमओ) ज्ञानमय (सिद्धो) सिद्धात्मा (सिद्धीए) सिद्धलोकमें (णिवसइ) निवास करता है, (तारिसओ) वैसा ही (परमो बंभो) परमब्रह्मस्वरूप अपना आत्मा (देहत्थो) देहमें स्थित (मुणेयव्वो) जानना चाहिए। टीकार्थ–'मलरहिओ जाणमओ' इत्यादि गाथाका भट्टारक श्री कमलकीति व्याख्यान करते हैं। यथा-'मलरहिओ णाणमओ णिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो' शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप मलोंसे रहित है, अतः निर्मल है / तथा वह सकल विमल केवलज्ञानसे सम्पन्न है, अतः वह ज्ञानमय है। ऐसा सिद्ध परमात्मा उपचरित सद्भूतव्यवहारनयसे निवास करता है।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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