________________ तत्त्वसार संस्कृतच्छाया-ध्यानेन करोतु भेदं पुद्गल-जीवयोस्तथा च कर्मणाम् / ग्रहीतव्यः निजात्मा सिद्धस्वरूपः परः ब्रह्मा // 25 // टीका-'झाणेण' इत्यादि टीकाकर्ता मुनिः पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं करोति / 'झाणेण कुणउ भेयं' पूर्वोक्तधर्म-शुक्लध्यानेन स एव पूर्वोक्तज्ञानी भेदभिन्न भिन्नं करोतु / कयोः केषां वा ? 'पुग्गलजीवाण तह कम्माणं' पुद्गल-जीवयोः शरीरात्मनोः, तथैव ज्ञानावरणाद्यष्टविधद्रव्यकर्मणां रागद्वेषादिभावकर्मणां च, औदारिकवैक्रियकाहारकर्तजसकार्मणादिपञ्चप्रकारशरीरनोकर्मणामपि स्वशुद्धात्मनः सकाशात् पृथक्त्वं करोतु / पश्चात् किं कर्तव्यं भवतीति क्रियायाः अध्याहारः क्रियते। 'घेत्तव्वोणिय अप्पा' निश्चयनयेन द्रव्यकर्मभावकर्म-नोकर्मरहितो निजशद्धात्मा ग्रहीतव्यः / कथम्भूतो निजात्मा? 'सिद्धसरूवो परो बंभोः' सिद्धस्वरूपः-सिद्धं निष्पन्नं कृतकृत्यं स्वरूपं यस्यासौ प्रकार द्रव्यकर्मनिका अर राग-द्वेषादिक भावकर्मनिका / बहुरि औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस कार्मणादिक पांच शरीर नोकर्मनिका हू स्वशु द्धात्मातें हू न्यारा करौ / पीछे कहा कर्तव्य होय है ? निज आत्मा कू ही ग्रहण करना योग्य है। कैसा है सिद्ध स्वरूपकू ही उत्पन्न भया है कृतकृत्य अपना स्वरूप जाका। अर सर्वोत्कृष्ट अर स्वज्ञानादिक गुणकरि वृद्धिकौं प्राप्त होय सो ब्रह्मा कहिए, ताहि ग्रहण करणा योग्य है // 25 // भावार्थ-भेदज्ञान करके ज्ञानीपुरुष अपने शुद्धस्वरूपको ग्रहण करता है। टीकार्थ-'झाणेण कुणउ भेयं' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि अर्थ-व्याख्यान करते हैं। 'झाणेण कुणउ भेयं' अर्थात् पूर्वोक्त धर्मध्यान और शुक्लध्यानके द्वारा वही पूर्वोक्त ज्ञानी भिन्नभिन्न रूपसे भेद करे। प्रश्न-किनका भिन्न-भिन्न भेद करे? ___ उत्तर–'पुग्गल-जीवाण तह य कम्माणं' पुद्गल और जीवका, अर्थात् शरीर और आत्माका तर्थव ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके द्रव्यकर्मोंका, राग-द्वेषादि भावकर्मोंका और औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण आदि पांच प्रकारके शरीररूप नोकर्मोका भी अपने शुद्ध आत्मस्वरूपसे पृथक्पना करे। प्रश्न-पीछे क्या करना चाहिए ? उत्तर-'पश्चात् क्या कर्तव्य है' इस क्रियाका अध्याहार करना चाहिए। तब 'घेत्तव्वो णिय अप्पा' निश्चयनयसे द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे रहित निज शद्ध आत्मा ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न-निज आत्मा कैसा है ? उत्तर-'सिद्धसरूवो परो बंभो' सिद्ध स्वरूप है। सिद्ध अर्थात् निष्पन्न हो गया है कृतकृत्य स्वरूप जिसका, वह सिद्धस्वरूप कहलाता है। भावार्थ-जिसे संसारमें करनेके योग्य कोई भी कार्य शेष नहीं रहा है, उसे कृतकृत्य कहते हैं। प्रश्न-पुनः वह आत्मा किस विशेषतासे युक्त है ? उत्तर-'पर है' अर्थात् सर्वोत्कृष्ट है।