________________ तृतीयः सर्गः संसारिजीव उवाच-- इतश्च पुर्या नृगतौ विशाले सत्पाटके यद्भरताभिधाने / जयस्थलं नाम पुरं तदीशः पद्माभिधोऽभून् मघवा पृथिव्याः // 1 // जगन्मनोरोपितहर्षकन्दा नन्दाभिधा तन्महिषी बभूव / प्रवेशितोऽहं प्रियया तयाऽस्याः कुक्षौ सपुण्याभ्युदयोऽथ जातः // 2 // ननन्द नन्दा तनयो ममाऽभूदिति प्रवृद्धादभिमानदोषात् / प्रमोदकुम्भाभिधदासवाक्याद् राजाऽपि तुष्टः प्रददौ वसूनि // 3 // विनिर्मितो जन्ममहोत्सवो मे व्यधायि नन्द्युत्तरवर्धनाख्या / तिरोहिता प्रागभिधा विशेषा ममाऽप्यभूत् तत्तनयाभिमानः // 4 // . अथाऽन्तरङ्गे परिवारवृन्दे ममैव या धात्र्यविवेकिताख्या / असूत मज्जन्मदिने सुतं सा विविच्य वैश्वानरनामधेयम् // 5 // ततोल्लसद्वैरविषादपादो द्रोहाभ्यसूयाकठिनोरुजङ्घः / अक्षान्तिचित्तानुशयासमोरुर्विलम्बपैशून्यकटिप्रदेशः // 6 // बिभ्रञ्च मध्यं परमर्मभेदप्रलम्बिकोष्ठाकलितप्रमाणम् / / उरःस्थलेनातिविसङ्कन तापेन दीप्तो दृढदुर्नयांसः // 7 // क्षारत्वमात्सर्यविरूपबाहुः क्रूरत्वदीर्घोच्चशिरोधराभृत् / असभ्यभाषादिविकीर्णदन्तः चण्डत्वनिर्भर्त्सनशून्यकर्णः // 8 // हास्यो दधानश्चिपिटां च नाशां स्थानाकृति तामसभावसंज्ञाम् / रौद्रत्वनैर्घण्यसुरक्तनेत्रस्त्रिकोणदुष्टाचरणाख्यशीर्षः // 9 // असङ्गतापिङ्गलकेशभारो गृहीतशल्यत्रययज्ञसूत्रः / निबद्धदौःशील्यशिखः स हिंसावेदाश्रयः प्रेक्ष्यत दुष्टबालः // 10 // निरीक्षिते तत्र बभूव पूर्वाभ्यासेन हर्षो नृपनन्दनस्य / अपेक्षते स्वीयबलप्रकर्षान्न संस्तवो हर्षविधौ विशेषम् // 11 // वशंवदं स्वस्य स मामवेक्ष्य जहाति पाव न कदापि दुष्टः / / स्ववैरिसंसर्गमवेक्ष्य साक्षात् पुण्योदयो मित्रमतीवरुष्टः / / 12 // 1. भारो विराधनासूत्रधृतत्रितन्तुः। निबद्धदौ शील्यशिखः कुनीतिवेदाश्रयो विप्रसूनुः स दृष्टः ॥१०॥निरी॥