________________ श्लो० 21-74 ] वैराग्यरतिः। जनितानन्दं लोकैः सूनृतताम्बूलभृतमुखैः शमिनाम् / शुचिदर्शनकर्पूरं शीलाङ्गसहस्रततकुसुमम् // 46 // गुरुकरुणाऽगुरुधूपं प्रसृमरशुचिभावनामृगमदाढ्यम् / ध्यानजलयन्त्रलहरी-शमचन्दनलेपहततापम् // 47 // दृष्टाश्च तेन लोकास्तत्र स्थगिताऽन्धकूपमोहभराः / अपहस्तितमृत्युभया निर्जितमिथ्यात्ववेतालाः // 48 // दैन्यौत्सुक्य-जुगुप्सा-ऽरति-चित्तोद्वेग-तुच्छतारहिताः / गाम्भीर्यौदार्य-धृति-स्मृतिसहिताः सन्ततानन्दाः // 49 // गायन्तः स्वाध्यायैर्वैयावृत्यविधिना च नृत्यन्तः / वल्गन्तो जिनजन्माभिषेकयात्रादिसम्पत्त्या // 50 // उत्कृष्टिसिंहनादं प्रदर्शयन्तः प्रवादिना विजयात् / आनन्दमर्दलगणं प्रवादयन्तश्च धर्मदिने // 51 // तत्र नृपा बहिरन्तः शान्ता दीप्ताश्च सूरयो दृष्टाः / मन्त्रिवरा ज्ञातारो गूढार्थानामुपाध्यायाः // 52 // गीतार्थवृषभयोधा विभयाश्च पुरः परेतभर्तुरपि / भावापन्मग्नानामुद्धर्तारः कुलादीनाम् // 53 // उपकारिणः पदद्वयदक्षा गणचिन्तका नियुक्ताश्च / तलवर्गिकाश्च सामान्यभिक्षवो विहितगुर्वाज्ञाः // 54 // आर्याः स्थविरा लोकाः प्रमत्तललनानिवारणोयुक्ताः / शुचिधर्मशीललीलाललनाश्च श्राविकावर्गाः // 55 // श्राद्धगगा भटनिकरा ध्यायन्तो जिनवरं महाराजम् / गुरुजननिर्देशपरा नैमित्तिकनित्यकर्मकृतः // 56 // पुण्यानुबन्धि पुण्यं दत्ते वैराग्यकारणं भोगम् / इति ये दिव्या भोगाः स्फीततमं मन्दिरमिदं तैः // 17 // दृष्ट्वा शासनमन्दिरमिदमीढक् सुस्थितस्य सम्राजः / जातोऽसौ विस्मयवान् सोन्मादो वेद न विशेषम् // 5.8 // सञ्जातकर्मविवरो जिनमतमुपलभ्य भवति जिज्ञासुः / मिथ्यात्वांशोन्मादैर्न तु भवति विशेषसंवित्तिः // 59 // पूते हृदयाकूते स्फुरितं पुनरस्य लब्धबोधस्य / येनेदमदर्शि महाबन्धुर्मे द्वारपालोऽसौ // 6 // निष्पुण्योऽहमिहाऽऽदौ जिज्ञासामात्रमपि न यस्याऽऽसीत् / ये मन्दिरेऽत्र मुदिता धन्यास्ते धूतपापभराः // 61 // अथ सप्तरज्जुभूमिकलोकप्रासादशिखरनिष्ठेन / सुस्थितनृपेण स कृपादृष्टयैक्यत चिन्तयन्नेवम् // 62 // मार्गानुसारिताया भद्रकभावे प्रवर्तमानस्य / भगवदर्शनमेतद् भगवद्बहुमानभावेन // 63 // भगवदवलोकनेयं प्रोक्ता मार्गप्रणालिका सद्भिः / द्रव्यश्रुताद् विनैनां स्थूलज्ञानं न चान्ध्यहरम् // 64 // तां तत्र राजदृष्टिं निपतन्ती तन्महानसनियुक्तः / निरवर्णयदुपयोगादाचार्यों धर्मबोधकरः // 65 // दध्यौ चाऽयं किमिदं चित्रं ? यदर्शनेन विश्वविभोः / भवति त्रिभुवनविभुता बीभत्सोऽयं पुनमकः // 66 // दृष्टगुरुकर्मभारे प्रोल्लसिताऽकाण्डशुभसमाचारे / पौर्वापर्यविरोधात् सुगुरोश्चिन्तेयमुचितैव // 6 // स तदैव निश्चिकाय च हेतुद्वयमत्र भाविभद्रस्य / द्वाःस्थप्रवेशनमदो दृष्टौ च मनःप्रमोद इति // 68 // भवति प्रमुदितमन्तर्यस्यैतद्भवनमीक्षमाणस्य / अत्यन्तवल्लभोऽसौ महानृपस्येति निःशङ्कम् // 69 // जातो मनःप्रमोदश्चास्य यदेतद्दिदृक्षयाऽनुकलम् / रोगार्ते अपि नेत्रे प्रोन्मीलयतीव जिज्ञासुः // 70 // प्रवचनलवेऽप्यधिगते विकसितवदनो भवत्यदृश्योऽपि / धूलीधूसरिताङ्गं रोमाञ्चयति क्रियालेशात् / / 71 // कर्मविवरप्रसादाजिनशासनपक्षपातभावाच्च / तदयं द्रमकोऽपि गमी कल्याणपरम्परास्थानम् // 72 // इति निश्चित्य स मार्गावतारणे भावतोऽभिमुखभावात् / तस्य समीपं गच्छति दातुं भिक्षा तथाऽऽहयति // 73 // लोकोऽयमनाद्यन्तो जीवस्तादृग्भवोऽस्य कर्मकृतः / तत् पुण्य-पापभेदाद् द्विविधं सुख-दुःखयोर्हेतुः // 7 // 1. जः / विस्मयमाप विवेक्तुं सोन्मादतयाऽत्र न विशेषम् // 2. येऽत्र वसन्ति पवित्रा धन्या //