________________ प्रलो० 792-850 ] वैराग्यरतिः। संस्तुतो देवदेवीभिः सुस्निग्धमधुरोक्तिभिः / हरिचन्दन-मन्दार-सन्तानस्रगविराजितः // 821 // विलोक्य तादृशी भूतिं विस्मितः पर्यचिन्तयम् / कृतं मया किं सुकृतं ! ज्ञानं प्रादुरभूत् ततः // 822 // विरोचनभवावस्था मया तेनावधारिता / समायातौ च सम्यक्त्वमहतम-सदागमौ // 823 // बन्धुत्वेन प्रपन्नौ तौ कृतं कृत्यं तथोचितम् / विलोक्य पुस्तकं रात्नं भगवत्पूजनादिकम् // 824 // ततः स्वहृदयानन्दिविषयग्रामलालितः। स्थितस्तत्र मनागन्यूनसागरद्वितयावधि // 825 // ततश्च मानवावासे सुनुर्मदन-रेणयोः / आभीरोऽहं कलन्दाख्यो भवितव्यतया कृतः // 826 // न मामन्वागतौ तत्र महत्तम-समागमौ / तन्नान्तरीयको दृष्टः श्राद्धधर्मो न तो विना // 827 // जातः प्राचीनसंस्कारात् केवलं पापभीरुकः / ज्योतिष्कोऽहं ततो जातो भद्रकत्वानुभावतः // 828 // तत्र लालयता भोगैरिन्द्रियाणि सदा मया / सेवितो दृढरागेण महामोह-परिग्रहो // 829 // ततोऽहं दर्दुराकारो रुष्टया प्रियया कृतः / नानाविधेषु स्थानेषु बहुशो भ्रामितस्ततः / / 830 // ततश्च मानवावासे काम्पिल्यनगरे कृतः / धराया वसुबन्धोश्च तनयो वासवाभिधः // 831 // शान्ताख्यं सूरिमासाद्य तत्र सद्धर्मदेशकम् / पुनदृष्टौ मया भद्रे ! महत्तम-सदागमौ // 832 // द्वितीयकल्पे सम्प्राप्तस्तत्प्रभावात् सुरालये / तत्रापि स्मृतिमारूढी महत्तम सदागमौ // 833 // भुक्त्वाऽतुलं सुखं तत्र सुचिरं काञ्चने पुरे / आगतो मानवावासे मोहात् तो तत्र विस्मृतौ // 834 // इत्थं सङ्ख्यातिगा वारा दृष्टौ नष्टौ च तावुभौ / सामान्यश्राद्धधर्मोऽपि दृष्टः सति महत्तमे // 835 // असङ्ख्यवारास्तदृष्टास्त्रयोऽमी वरबान्धवाः / दृष्टश्च केवलोऽप्येषोऽनन्तवाराः सदागमः // 836 // सबातो मत्समीपस्थो यत्र यत्र महत्तमः / तत्र तत्राऽभवत् पुण्योदयः सुखनिबन्धनम् // 837 // जाता कर्मस्थितिलेवी लीना मोहादयोऽपि च / यदा ते प्रबला जातास्तदा पुण्योदयो गतः // 838 // जितौ मोहादिभिः कापि महत्तम-सदागमौ / देशकालबलं प्राप्य कचित् ताभ्यां च ते जिताः // 839 // इत्थं कालमनन्तं ते जाता भङ्गजयस्पृशः / पक्षपाताजयोऽभूदु मे भङ्गस्तस्य विपर्ययात् // 840 // कृतोऽन्यदा शालिभद्र-कनकप्रभयोरहम् / सुतो विभाषणः पन्या पुरे सोपारके तया // 841 // अथ सूरि सुधाकूपं सम्प्राप्य शुभकानने / पुनदृष्टौ मया बन्धू महत्तम-सदागमौ // 842 // ततो गुरूपरोधेन जातोऽहं श्रमणस्तदा / तत्त्वश्रद्धानसहितो भावचारित्रवर्जितः // 843 // लिङ्गमादाय मौनीन्द्रं मुनिमध्येऽपि तिष्ठतः / कर्मदोषाद् मनो मेऽभूद् वैभाष्यनिरतं ततः / / 844 // ततः प्रबलतां प्राप्ता महामोहादयो द्विषः / भावतो विगतौ दूरे महत्तम-सदागमौ // 845 // तपस्विनां सुशीलानां जातोऽहं निन्दकस्तदा / अन्येषामपि निन्दौधैर्मुखमुलितं मम // 846 // किमन्यत् तीर्थनाथानां श्रुतस्य गणघारिणाम् / सङ्घस्य चाशातनया पापकूपो मया भृतः // 847 // यतिवेषोऽपि जातोऽहं मिथ्यात्वी गुणदूषकः / ततोऽनन्तं पुनः कालं भ्रमितोऽहं स्वभार्यया / / 848 // न सा विपद् न सा पीडा न सा तीव्रविडम्बना / अपार्द्धपुद्गलावतं या न सोढा मया तदा // 849 / / स्वकीयवृत्तान्तमिति ब्रुवाणे संसारिजीवे श्रवणामृताभम् / भावार्यबोधाद् हृदयेऽगृहीतसङ्केतया किश्चिदधारि चित्रम् // 850 //