________________ 282 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [सप्तमः सर्गः ज्ञात्वा निर्बन्धमखिलैः प्रतिपन्नं वचोऽस्य तत् / ममागतो ततः पार्श्व महामोह-परिग्रहौ // 575 // वीक्षितौ तौ मया स्नेहः सह ताभ्यामभूद् मेम / येन तदौत्यकासीदनाद्यभ्यासवासना // 576 // इतश्चाभूद् यशःशेषो जीमूतो भूमिवासवः / स्थापितोऽहं च साम्राज्ये मन्त्रिबन्धुमहत्तमैः // 577 // जातः सीमान्तभूपालभालचुम्बितपत्कजः / दिनस्यार्क इवोर्जस्वी राज्यस्य परिणामतः // 578 // तत्र पुण्योदयो हेतुर्मया मोहान्न लक्षितः / विषयेष्वथ मुह्यन्तं मामाचष्टे सदागमः // 579 // बहिश्चरेषु भावेषु तुच्छेषु धनवाहन / मा कार्कनि:स्वभावेषु मूर्छा दुःखैकधामसु // 580 // गर्जज्ज्ञानगजोत्तरगयानतुरङ्गमाः / चित्ताबन्धाय युक्तास्ते शमसाम्राज्यसम्पदः // 581 // भूतिसाम्राज्यभोगादि महामोहस्तु मेऽखिलम् / वक्ति वस्तु हितं पूर्णमात्मनीनं सुखात्मकम् / / 582 // दत्ते हितोपदेशं च नास्ति जीवो न निर्वृतिः / न पुण्यपापे न स्वर्गो भूतमात्रमिदं जगत् // 583 / / यतो यथेष्टं चेष्टस्व सुखं भुव दिवानिशम् / मा मूढवचनं कृत्वा वृथा भूः सुखवञ्चितः / / 584 / / परिग्रहस्तु मां ब्रूते कुरु स्वर्णादिसङ्ग्रहम् / असन्तुष्टोऽर्थलाभे हि जायते सुखभाजनम् // 585 / / . अहं त्वाकर्ण्य वचनं त्रयाणामपि तादृशम् / चित्ते दोलायितो यावद् वाताधूत इव द्रुमः // 586 // ज्ञानसंवरणो राजा तावदाक्रम्य मां स्थितः / महामोहप्रसादार्थी तत्सैन्यबलपोषकः / / 587 // ततः सदागमेनोक्तं मया वाक्यं न बुध्यते / परिग्रह-महामोहवाक्यास्वादस्तु लभ्यते // 588 // ततो धर्मक्रियां त्यक्त्वा जातोऽहं भोगमूर्च्छितः / निवार्य साधुदानादि धनसङ्ग्रहणे रतः // 589 // . करेण पीडिता लोकास्ततो मूर्छाभृता मया / नारोचत महामोहदोषाद् मम सदागमः // 590 // परिग्रहस्य वीर्येण पूर्णा तृष्णा न मे धनैः / सदागमो गतो दूरे मत्वा मां तादृशं ततः / / 591 // निष्कण्टको ततस्तुष्टौ महामोह-परिग्रहौ / अथागात् कोविदः सूरिरकलङ्कयुतोऽन्यदा // 592 // तस्याकलङ्कदाक्षिण्याद् गतोऽहं नतिहेतवे / स सूरिरकलङ्कश्च ससाधुर्वन्दितो मया // 593 // . इतश्च दश्चरित्रं मे ज्ञातं कोविदसूरिणा / ज्ञानालोकेन लोकोक्तेरकलङ्कन चाखिलम् // 594 // ततो व्यजिज्ञपत् सूरिमकलको निवेद्यताम् / सदागमस्य महिमा खलसङ्गे च दूषणम् / / 595|| घनवाहनभूपाय यथाऽसौ सुखमाप्नुते / भक्तः सदागमे दुष्टसङ्गत्यागी विशेषवित् // 596 / / सूरिराह शृणोत्वेष प्रहः श्रोतुमहं स्थितः ततोऽकलङ्कदाक्षिण्यादथ सूरीन्दुरभ्यधात् // 597 // क्षमातलपुरे राजा विद्यते मलसञ्चयः / मलपक्त्यभिधा तस्य देवी जातो तयोः सुतौ // 598 // . . कोविदो बालिशश्च द्वौ संस्तवं तत्र कोविदः / साई सदागमेनोचैः प्राग्जन्माभ्यासतोऽकरोत् // 599 // .. ततो यावत् पुनदृष्टस्तावहादि कुर्वतः / जाता जातिस्मृतिस्तस्य हितत्वेनादृतश्च सः // 600 // तेन स्वरूपं तस्योच्चैर्बालिशाय निवेदितम् / तेन न प्रतिपन्नं तु समाक्रान्तेन पाप्मना // 601 // इतश्च प्रहिता कर्मपरिणामेन भूभुजा / स्वयंवरा श्रुतिः कन्या प्रति कोविद-बालिशौ // 602 // दासः सङ्गाभिधो वष्टस्तस्याश्च प्रहितोऽग्रगः / पटुः सम्बन्धघटने तो द्वावपि समागतौ // 603 // 1. मम / अनाद्यभ्यासयोगेन दूतेन कृतनिर्भरः // 576 // इत॥ 2. स्थिरं // 3. भोगान् // 4. द्वौ तन्त्र जन्मान्तरेऽजनि / सार्द्ध सदागमेनोच्चैः कोविदस्यातिसंस्तवः // 599 // ततो //