________________ 151 ग्ला० 185-241 ] वैराग्यरतिः। महाबलोऽयं द्रुमवत् तन्मामुन्मूलयिष्यति / वर्धमानः समुत्तोल्यबलादप्रतिबन्धकः / / 213 // नोपेक्षणीयस्तदयं यतो नीतिविदो विदुः / अर्धराज्यहरं भृत्यं यो न हन्यात् स हन्यते // 214 // अमन्त्रयत् ततो राजा कर्त्तव्यं हरिमारणम् / सुबुद्धिमन्त्रिणा सार्धं सोऽपि राजाऽनुवृत्तिभाक् // 215 / / वज्राहतोऽपि वाक्येन तेन प्रत्यब्रवीदिदम् / युक्तं ते रुचितं देव शिष्टानां युक्तबुद्वयः // 216 // सुबुद्धिर्नीलकण्ठश्च ततः स्वं स्वं गृहं गतौ / सुबुद्धेरथ सञ्जाताः संकल्पा मनसीदृशाः // 217 // धिग् भोगसुखलब्धत्वं धिग् महामोहजृम्भितम् / धिग् राज्यं काष्ठवदीर्ण कुविकल्पघुणवजैः / / 218 // जामाता भागिनेयश्च प्रियोऽस्याभूत पुरो हरिः / तृष्णाकृष्णाहिदष्टस्य साम्प्रतं भाति शत्रुवत् // 219 // निहन्तुं राज्यलोभेन राजा यद्यपि वाञ्छति / रक्षणीयस्तथाऽप्येष नररत्नं मया हरिः // 220 // ततो दमनकं चेटं प्रच्छन्नं प्रजिघाय सः / मन्त्री तेन हरेरुक्तं देशस्त्याज्योऽधुना त्वया // 221 // सुबुद्धयुक्तमिति श्रुत्वा निर्भयोऽपि हरिर्मनः / समुद्रलङ्घने चक्रे तं वृत्तान्तं च मां जगौ // 222 // यद् राजा कार्यकुपितो मन्त्रिणा च हितैषिणा / आदिष्टमिति गन्तव्यमुल्लयाम्भोनिधिं मया // 223 // प्रतिष्ठस्व त्वमपि तत् त्वां विना मम नो धृतिः / मयाऽपि गाढदाक्षिण्याद् वचस्तस्य प्रतिश्रुतम् // 224 // यानपात्रद्वयं सज्जीकारितं सुदृढं ततः / तत्रैकं मम रत्नौधैर्भूतमन्यत् पुनहरेः // 225 // हरिर्मयूरमञ्जर्या वसुमत्या च संयुतः / प्रदोषेऽहं च सम्प्राप्तौ तीरं वारां निधेरुभौ // 226 // आरूढो यानपात्रे स्वे विधावभ्युद्गते हरिः / आरुरुक्षुः स्वबोहित्थमप्यहं स्थापितोऽन्तिके // 227 // मरुद्वेगादथ तयोर्गच्छतोर्यानपात्रयोः / व्यतीयुः कतिचिद् वार्धी वासरा बहुलचिते // 228 / / अत्रान्तरे पापमित्ररूपौ सागर-मैथुनौ / ममैवं चक्रतुर्बुद्धिं नाशितहीकुलक्रमौ // 229 // भृतं ममैकं बोहित्थं रत्नैरन्यद्धरेदिदम् / ममैवोपस्थितं भाग्यैस्तत् त्यक्तुं नैव युज्यते // 230 // मयूरमञ्जरी चेयं यावद् भुक्ता न भामिनी / पद्माक्षी मन्थरगतिर्जघनस्तनगौरवात् // 231 // रंम्भोरुः क्षाममध्या च लावण्यामृतवाहिनी / तावत् किं मम रम्येण यौवनेनावकेशिना // 232 // तदिदं रत्नबोहित्थमेनां च हरिणेक्षणाम् / हरिं व्यापाद्य गृह्णामि नान्यथा चित्तनिर्वृतिः // 233 // ततो विस्मृत्य तस्योच्चैर्निाजस्नेहहृद्यताम् / अङ्गीकृत्य महापापं कुलदूषणकारणम् // 234 // रात्रौ शरीरचिन्तार्थ बोहित्थान्ते स्थितो हरिः / द्राकृत्य पतितोऽम्भोधौ पापेन प्रेरितो मया // 235 // . द्राट्कारादुत्थितैलोकैः कृतः कोलाहलो महान् / मयूरमञ्जरी भीता स्थितोऽहं शून्यधीरिव // 236 // चुकोप मयि तत्प्रेक्ष्य तादृशं कर्म निघृणम् / समुद्राधिपतिर्देवस्तुतोष च हरेर्गुणैः // 237 // सोऽब्धिनीरात् समुत्पाट्य बोहित्थेऽस्थापयद् हरिम् / अर्थ कविरिव प्रौढं पद्ये हृदयगहरात् // 238 // मत्तः प्रातः शशीवाभ्रान्नष्टः पुण्योदयस्तदा / मत्सम्मुखं बभाषेऽथ स देवो भीषणाकृतिः // 239 // रे नराधम पापिष्ठ ! श्री-हो-धीपरिवर्जितः / पापकर्मेदृशं कृत्वा किं त्वमद्यापि जीवसि ? // 240 // इत्युक्त्वा मां गृहीत्वाऽसौ गगने कोपनः स्थितः / हरिः प्रणम्य तं देवमेवं स्नेहाद् व्यजिज्ञपत् // 241 // 1. व स्फीतं 5 //