________________ 150 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [ षष्ठः सर्गः कृतं मया यथा ध्यातं रत्नौधो मिलितस्ततः / कचित् पश्यामि रत्नानि गतो मूर्छा पुनः पुनः // 185 // क्वचित् स्पृशामि हस्तेन मुहुरुच्छालयामि च / कचिद् वक्षःस्थले दत्त्वा हर्षमग्नो भवामि च // 186 // निखनामि कचिद् गर्ते शङ्कां धृत्वोत्खनामि च / सुखं दिने च रात्रौ च नाविश्वासाद् बभूव मे // 187 // ध्यानं सर्वजगद्रत्नसङ्ग्रहस्य मया धृतम् / स्थितोऽहं सदने नित्यं रत्नोपार्जनलोलुपः / / 188 // इतश्च द्वौ श्रुतौ कालपरिणत्यनुजीविनौ' / इमं प्रचक्रतुर्जल्पं मिथो मैथुन-यौवनौ // 189 // वैशः संसारिजीवोऽयमावयोर्धनशेखरः / प्रस्तावः श्रयणेऽस्याऽस्ति द्वयोः साम्प्रतमावयोः // 19 // कृत्वा जल्पमिमं पूर्वं यौवनो मामुपागतः / तवाप्यवसरो गन्तुमस्ति तस्यान्तिकेऽधुना / भाषितं मैथुनेनापि तत्सम्बन्धं कुरुष्व मे // 191 // यौवनेनोदितमसौ पूर्व संसेवितो मया / तद् दृढं तव सम्बन्धं करिष्यामि सहामुना // 192 // एवं तौ कृतसम्भाषौ प्राप्तौ मैथुन-यौवनौ / उक्तश्च यौवनेनाहं वत्सलोऽयं सुहृद् मम // 193 // अतोऽहमिव सर्वत्र द्रष्टव्योऽयं सदा त्वया / अकृत्रिमदृशा दृष्टस्तव दास्यत्यसौ सुखम् // 19 // ततो यौवनवाक्येन तेनाहं मुदितो हृदि / प्रतिपन्नौ च मयका तौ प्रीतेनान्तरात्मना / / 195|| . मैथुनाय मया दत्तः प्रासादः स्वान्तसंज्ञकः / यौवनाय च गात्राव्यस्तत्सम्बन्धो द्वितीयकः // 196 // कृता विलासशौर्याचा यौवनेन गुणा मम / मैथुनेन कृतोऽतृप्तो भुक्तैः स्त्रीणां शतैरपि // 197 // मैथुनेनेरितो यावद् रन्तुमीहे पणाङ्गनाम् / धनरक्षापरस्तावत् सागरो मां निषेधति // 198 // इतो मैथुननिर्देश इतः सागरलचनम् / सम्पन्नस्तदयं न्याय इतो व्याघ्र इतस्तटी // 199 // सागरस्यातिवाल्लभ्याद् मैथुनाज्ञाऽनतिक्रमात् / ततो मया कृतं कर्म दारुणं लोकगर्हितम् // 20 // याः काश्विद् बालविधवा रण्डाः प्रोषितभर्तृकाः / वतिन्योऽन्याश्च मूल्येन विना ताः सेविता मया // 201 // ततोऽहं मैथुनाधीनस्तृप्तो नैवान्त्य जास्वपि / योषित्सम्बन्धिभिोकैस्ताडितश्च विगोपितः // 202 // हरि-पुण्योदयबलात् केवलं नैव मारितः / जीवन्मृतस्तु धिक्कारप्रहारैर्नागरैः कृतः // 20 // तथापि मे न मूढस्य व्यावृत्तं मैथुनाद् मनः / जातोऽहं प्रियमित्रेऽस्मिनिर्मिध्यस्नेहनिर्भरः // 204 // अभूत् तुच्छमतेरित्थं मैथुनो मम वल्लभः / ततोऽपि वल्लभतरः सागरो रागरोचितः // 205 // मित्रयुग्मेन तेनेत्थं मयकाऽभिमतं सुखम् / दुःखितेनाप्यखण्डाभ्यां पक्षाभ्यामिव पक्षिणा // 206 // अन्तःपुरं पुरं राज्यं हरौ रक्तमथाखिलम् / बभूव नीलकण्ठस्य पराकुण्ठितविक्रमे // 207 // ततोऽभूत् तस्य विपुला समृद्धिः कोश-दण्डयोः / जनानुरागो वल्लीनां सम्पदा नववारिदः(दे) // 208 // अथाऽसौ कुञ्जरारूढो राजलोकेन वेष्टितः / छत्रेण ध्रियमाणेन चारुचामरवीजितः // 209 // युक्तो मयूरमञ्जर्या पौलोम्या मघवानिव / पुरेऽखिले विशिष्टश्रीविचचार वयस्ययुग् // 210 // इतश्च वीक्ष्य विपुलं प्रजारागं हरौ नृपः / नीलकण्ठो दधौ चित्ते कलुपत्वं दुराशया // 211 // अचिन्तयच्च स पुनर्वृद्धोऽहं तनयोज्झितः / तन्त्रं सबान्धवं सर्वमनुरक्तं हरौ मम // 212 // 1. नौ। कदाचिच्चक्रतुर्जल्यं // 2. यौवनेनोदितं मित्र / भवजन्तुर्ममाऽधुना / घनशेखररूपेण गतोऽस्ति वशवर्तिताम् // ना