________________ प्रलो० 27-83 ] वैराग्यरतिः। 145 तिष्टाऽत्रैव नियुञ्जानस्तदिदं द्रविणं बहु / मयोक्तं तात ! मा वादीरेवं धुर्य ! विवेकिनाम् // 56 // लक्ष्मीर्योषिदिव कीबाद निरारम्भात् पराङ्मुखी / कुटिलेव विटं त्यक्तुं सारम्भं तु न वाञ्छति // 57 // यो न मुञ्चति संरम्भं प्राप्तैः क्लेशशतैरपि / अङ्कस्थले पतत्यस्य लक्ष्मीत्य स्वयंवरा // 58 // स्तोकप्राप्त्यैव सन्तुष्टे श्रियो रागो न वर्धते / रतिं बध्नाति करिणी न हि स्वल्पजलाश्रये // 59 // अनुजानीहि मे तात ? रत्नद्वीपे गमं ततः / श्रेष्ठी प्राह न तत्रापि श्रीर्भाग्यं लचयिष्यति // 60 // तथापि यदि ते वत्स ! निर्बन्धो दुरतिक्रमः / अनुज्ञातो मयाऽसि त्वं गच्छ तद् यत्र रोचते // 61 // ततः प्रमुदितो मुक्त्वा प्रमदां सदने पितुः / अन्यैर्महाधनैर्युक्तः सामग्र्या परिपूर्णया // 62 // अन्तर्मित्रयुतः काले शुभे विहितमङ्गलः / यानपात्रं समारुह्य चलितो वारिधावहम् // 63 // मध्येऽधेर्यानपात्रौद्यैश्चलद्भिर्धनिनां हृता / अन्तव्योमत्रजदेवविमानश्रीः सितध्वजैः // 64|| तद्वेगविचलद्वीचिबद्धफेनोऽम्बुधिर्बभौ / सहास इव सम्प्रेक्ष्य वणिगुत्साहसाहसम् // 65 // तरङ्गहस्तैर्विततैरालिङ्गन्निव वारिधिः / पप्रच्छ यानपात्राणां स्वागतं गर्जितच्छलात् // 66 // वार्षी वेगं दधुः पोता उत्साहा वणिजामिव / दौःस्थ्यैरिव ततः क्षुब्धैः कच्छपैः प्रपलायितम् // 67 // प्राप्तानि यानपात्राणि रत्नद्वीपं सुवायुना / वणिग्भिः प्राभृतं दत्त्वा ततो भूपः प्रसादितः // 68 // जगृहुः प्रतिभाण्डानि तेऽथ भाण्डौघविक्रयात् / प्रतिचेलुः प्राप्तलाभाः स्वदेशे शेषवाणिजाः // 69 // तत्रैव स्थापितोऽहं तु सागरेण प्रसर्पता / प्रारब्धं रत्नवाणिज्यं विधाय विततापणम् // 70 // अन्यदैकाऽऽगता वृद्धा नारी सा मामवोचत / " अस्त्यानन्दपुरे राजा केसरी तत्प्रिये उभे // 71 // जयसुन्दर्याह्वयैकाऽपरा कमलसुन्दरी / जातान् जातान् सुतान् हन्ति गृध्नू राज्यसुखे नृपः // 72 // अपत्यस्नेहतो नष्टा ततः कमलसुन्दरी / गर्भिणी मां सखीं लात्वा महाटव्यां पपात च // 73 // तत्रानुभूतः क्लेशौघो रात्रिशेषे च वेदना / जाता शूलाङ्गभङ्गायैस्तस्या हृदयदारिणी / / 74 // आसन्नप्रसवां मत्वा वाचा साऽऽश्वासिता मया / कुर्वत्या मम तत्कालोचितं कर्म मुमूर्च्छ सा // 75 / / योनिद्वारेण निरगाद् दारकः स्वामिनी मृता / वज्राहतेव जाताऽहं भूताविष्टेव शून्यहृत् // 76 // प्रवृत्ता च प्रलपितुं देहि स्वामिनि ! मे गिरम् / क गता त्वं सुतं हित्वा यस्यार्थे राज्यमुज्झितम् // 77|| गतैवं विलपन्त्या मे रजनी रविरुद्गतः / तत्पथेनेयुषा दृष्टा सार्थवाहेन तादृशी // 78 // आश्वास्य तेन वृत्तान्तः पृष्टो निगदितो मया / विस्मितोऽसौ मया पृष्टः क गन्तव्यं त्वयाऽनघ ! // 79 // जगौ सोऽहं प्रयास्यामि रत्नद्वीपं मया स्मृतम् / श्रुतः कमलसुन्दर्या नृपस्तत्र सहोदरः // 80 // भागिनेयं सुसार्थेन गत्वा तस्याऽर्पयाम्यहम् / सार्थवाहेन तेनाऽहं प्राप्ता द्वीपमिमं ततः // 81 // दर्शितो नीलकण्ठाय भागिनेयो मनोहरः / वार्ता कमलसुन्दर्याः सर्वा च कथिता मया // 82 // खेदगर्भोऽस्य हर्षोऽभूद् हरिरित्यभिधा कृता / दारकस्याथ सोऽस्याऽभूद् वर्धमानोऽतिवल्लभः // 83 // 1. लक्ष्मीः क्लोबादिव नरानि // 2. पृथक् पूरितपोतौधैः सहितोऽन्यमहाधनैः / / 62 // // 3. नीलकण्ठोस्ति कमलसुन्दर्यास्तत्र सोदरः // 8 //