________________ 120 महोपाध्यायश्रीयशोधिजयगणिविरचिता [ पञ्चमः सर्गः जगौ तथेति विमलो रत्नचूडो ज़हर्ष च / ततो वयं भवध्वंसिभवनाभिमुखं गताः // 118 // घटितं स्फटिकैदृष्टं राजितं स्वर्णराजिभिः / ज्वलदौषधिरूप्याद्रिशृङ्गाभं भगवद्गृहम् // 119 // सङ्क्रान्तैः काञ्चनस्तम्भैः स्वच्छस्फटिककुट्टिमे / दधत् क्षीगब्धिनिर्मग्नमन्थाद्रिव्रजविभ्रमम् // 120 // मुक्तावचूलैः स्तम्भस्थैर्विद्रुमद्युतिमिश्रितैः / हसत् पूर्वाद्रिशङ्गस्थसन्ध्या रक्तविधुश्रियम् // 121 // अवचूलस्थवैडूर्यत्विव्याप्तसितचामरैः / भवकण्ठप्रभापीनगङ्गापूरश्रियं हरत् // 122 // सितचामरसौवर्णदण्डविपिङ्गदर्पणैः / स्वधुनीभृद्भवजटास्फुटेन्दुद्युतिचित्रकृत् // 123 // मणिहारैर्महादर्शमण्डलप्रतिबिम्बितैः / जलस्थविद्रुमलतावितानश्रीप्रपञ्चकम् // 124 // प्रविश्य भवनेऽस्माभिश्चारु तत्रावलोकितम् / बिम्ब युगादिनाथस्य दिक्षु प्रेङ्गत्प्रभाभरम् // 125 / / प्रणामो विहितः सर्वैः पश्यतो विमलस्य तत् / उल्ललासान्तरं वीर्य गलिता कर्मसन्ततिः // 126 // व्यचिन्तयदथोद्भूतगुणरागः स चेतसि / अहो ! भगवतो रूपमिदं शान्तं मनोहरम् // 127 // ... अयमाकार एवाऽऽह देवस्य गुणगौरवम् / वीतरागो गतद्वेषो देवोऽस्मादनुमीयते // 128 // इति चिन्ताजलेनास्योन्मूलिते मोहपादपे / जातिस्मरणमन्तःस्थं सन्निधानमिवोदभूद् // 129 // जातमूर्टोऽथ पतितः पृथ्वीपीठे ससम्भ्रमः / शीतवायुप्रदानेन कृतः सुव्यक्तचेतनः // 130 // रत्नचूडेन पृष्टश्च किमेतदिति सादरम् / नत्वा तं प्रोद्भवद्भक्ति गौ रोमाञ्चभूषणः // 131 // प्राणास्त्वं बान्धवस्त्वं मे त्वं मे माता पिता गुरुः / येनेदं दर्शितं बिम्बं दर्शनादेव पापहृत् // 132 // दर्शितो मोक्षमार्गो मे त्वया दर्शयता ह्यदः / प्रापितं शिवसौधं मे छेदिता भववल्लरी // 133 // जातिः स्मृता मया तेन पश्यामि भवसन्ततिम् / अतीतामद्यदिनवत्पुराऽपीदं मयेक्षितम् // 134 // रञ्जितं दर्शनेनान्तः सदनुष्ठानमादृतम् / सद्भावैर्भावितश्चात्मा मैत्रीपात्रीकृता मतिः // 135 // . प्रमोदोऽङ्गाङ्गीभावं च गुणैराढ्ये जने गतः / क्लिश्यमानेषु कारुण्यं धृतोपेक्षा च दुर्नये // 136 // औदासीन्य स्थिरीभूतं शमः परिणतस्तराम्(?) / संवेगः संस्तुतः स्फीतो भवनिर्वेदचारिमा // 137 // उद्भूते करुणाऽऽस्तिक्ये व्यक्तिभक्तिर्गुरौ ययौ / समाधिर्ववृधे प्रौढिं चारित्रतपसी गते // 138 // आसम्यक्त्वभवात् सर्वमस्य बिम्बस्य दर्शनात् / जातिस्मृतेर्मया ज्ञानमूहापोहं वितन्वता // 139 // कुर्वन्ति यत् सुगुरवस्तत् कृतं मे त्वयेत्यथ / वदन् पपात विमलो रत्नचूडस्य पादयोः // 140 // . सम्भ्रमेणालमियता जाता ते प्रत्युपक्रिया / उत्थापितस्ततो रत्नचूडेनेति प्रजल्पता // 141 // ततः साधर्मिक इति स्तुतश्चेत्थं महाशय ! / स्थाने हर्षातिरेकस्ते धर्मवित्ता हि साधवः // 142 // अनित्येषु च तुच्छेषु विषयेषु सतां न धीः / धर्म एव धृतिस्तेषां शाश्वतप्रौढशर्मदे // 143 // इच्छा सत्त्वानुरूपेण भवेदर्थेषु देहिनाम् / तृणैर्हि तुष्यति मृगः केसरी करिभिर्हतैः // 144 // श्वा फेलापिण्डमासाद्य पुच्छमुच्छाल्य नृत्यति / द्विपेन्द्रोऽवज्ञया भुङ्क्ते दत्तं यत्नैः सुभोजनम् // 145 // धनराज्यादिकं प्राप्य माद्यन्ति क्षुद्रजन्तवः / त्वं तु मध्यस्थधीलब्धे दिव्ये रत्नेऽप्यभूः पुरा // 146 // 1. स्थनवोदयविधु॥