________________ ग्लो० 1970-1227 ] वैराग्यरतिः / 105 नीलादिवासनागृहमालयविज्ञानमभिमतं तैश्च / तत्संशुद्धिर्मुक्तिः प्रवृत्तिविज्ञानततिरूपा // 1199 // माध्यमिकमते सर्व स्वप्नाभं मानमेयधीमिथ्या / शून्यत्वदशा मुक्तिस्तदर्थमेवाविलोऽभ्यासः // 1200 // लोकायतैः पुनर्मुक्तिनगरी न गरीयसी / मन्यते पुण्यपापादेरभावं ते हि मेनिरे // 1201 // मानं प्रत्यक्षमेवैषां तत्वं भूतचतुष्टयम् / विषयेन्द्रियदेहाख्या समुदायेऽस्य जायते // 1202 / / चैतन्यं जायते तेभ्यो मद्यानेभ्यो मदो यथा / जलबुबुदवज्जीवाः पुमर्थो न स्मराद् ऋते // 1203 // दृष्हान्यप्रदृष्टार्थकल्पनासम्भवाद् भयात् / न भूतेभ्यः परं तत्त्वमिति लोकायतस्थितिः / / 1204 / / मीमांसकाः पुनः प्राहुर्वेदपाठादनन्तरम् / कर्त्तव्या धर्मजिज्ञासा तन्निमित्तं च चोदना // 1205 // सा च प्रवर्तकं वाक्यं धर्मस्तेनैव लक्ष्यते / अभावाद् वक्तृदोषाणां तत्प्रामाण्यं हि निश्चलम् // 1206 // प्रत्यक्षमनुमान चोपमानं शब्द एव च / अर्थापत्तिरभावश्च षट प्रमाणानि जैम(मि)नेः // 1207 // अप्रमत्तत्वशिखरे विवेकाद्रेः स्थिता अमी / जैनास्तु वत्स ! मन्यन्ते मुक्तिमार्गमिमं शुभम् // 1208 // जीवा-जीवा-ऽऽश्रवा बन्धः संवरो निर्जरा तथा / मोक्षश्च सप्त तत्त्वानि ज्ञेयानि हितमिच्छता // 12.9 // ज्ञानमेतत् ! तथा श्रद्धा सर्वथा सङ्गवर्जनम् / त्रयं मोक्षपथे ह्येष सिद्धिर्नैकतरात्यये // 1210 // नास्मिन् विधि-निषेधानां विरोधो जैनदर्शने / शुद्धं ह्येतत् कष-च्छेद-तापलक्षणकोटिभिः // 1211 // अनन्तपर्ययोपेतं प्रमेयं द्रव्यमिष्यते / सत्ता तल्लक्षणं साचोत्पाद-ध्रौव्य-व्ययात्मिका // 1212 // प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्वे प्रमाणे जिनागमे / दिगियं दुस्तरो ह्यत्र प्रमाणनयविस्तरः // 1213 / / चत्वारः प्रथमास्तत्र वादिनो मुक्त्यवेदिनः / आत्मानं ते यदिच्छन्ति नित्यं वा सर्वथाक्षयि(?) // 1214 // एकरूपः कथं नित्यो मुक्तौ सर्वत्रगो व्रजेत् / नष्टत्वाच्च कथं तस्यां नश्वरो गन्तुमर्हति // 1215 // तस्मात् तपस्विनो ह्येते मुक्तिमार्ग न जानते / मोक्षो लोकायतानां तु नीविमोक्षो हि योषिताम् // 1216 // अतिदुष्टाशयकरं क्लिष्टसत्त्वविचिन्तितम् / पापश्रुतं सदा धीरैर्वयं नास्तिकदर्शनम् // 1217 // ये सर्वज्ञं निराकृत्य वेदप्रामाण्यमास्थिताः / निर्वृत्तिस्तत्त्वतोऽभीष्टा न तैर्मीमांसकैरपि // 1218 // भूमिष्ठास्तदिमे सर्वे न मुक्तिपथदर्शिनः / अप्रमत्तत्वशिखरस्थितास्तद्दर्शिनो जनाः // 1219 / / तन्मिध्यादर्शनग्रस्ता भवचक्रस्थिता जनाः / तादृशा नाद्रिसानुस्था निःस्पृहा धूतकल्मषाः // 1220 // 'विमर्शः प्राह तदिदं भवचक्रस्य दर्शनम् / महाहास्यकरं सिद्धं नात्र यत्नः प्रयोजनम् // 1221 // सन्तोषदर्शनायावामागतौ स न वीक्षितः / न च तत्सहिता लोकास्तत् तान् दर्शय साम्प्रतम् // 1222 // विमर्शः प्राह शिखरे जैनं पुरमिह स्थितम् / तद् यावोऽत्रै यथा मुख्या दिदृक्षा तव पूर्यते // 1223 // एवमस्त्विति तेनोक्ते तो तत्र नगरे गतौ / दृष्टाश्च मुनयस्तत्र ज्ञाननिर्दूतकल्मषाः // 1224 // विमर्शः प्राह ते ह्येते लोका येऽन्तर्द्विषच्छिदः / त्रसानां स्थावराणां च बान्धवाः सर्वदेहिनाम् // 1225 // नादत्तग्राहिणः सत्यवाचोऽमी ब्रह्मचारिणः / निरीहाः स्वशरीरेऽपि निर्ममा निष्परिग्रहाः // 1226 // चित्रवृत्तिमहाटव्यामेतेषां सा प्रमत्तता / नदी शुष्का तद्विलासपुलिनं गलितं द्रुतम् // 1227 // 1. प्रकर्षः प्राह // 2. त्रपदं ह्येतत् सन्तोषस्य च तज्जुषाम् // 1223 //