________________ 74 महोपाध्यायनीयकोविजयगणिविरचिता [चतुर्भः सर्गः ततः प्रोक्तो विमर्शन तेषां भेदार्थविस्तरः / नरवाहनराजोऽपि तं पप्रच्छ विचक्षणम् // 458 // तेनाऽपि तस्य राजेन्दोर्भावार्थः प्रतिबोधितः / अथाऽगृहीतसङ्केता पप्रच्छ भवजन्तवे // 459 // महानद्यादिवस्तूनां वाच्यो भेदस्त्वयाऽपि मे / तेषां प्रातिस्विकं रूपं न जानाम्यहमप्यहो ! // 460 // प्राह संसारिजीवोऽथ स्पष्टदृष्टान्तमन्तरा / दुर्भेदोऽयं त्वया भद्रे ! तद् दृष्टान्तं बदाम्यहम् // 461 // अत्यनादिपादित्यो नगरे भवनोदरे / प्रियाऽऽसीत् संस्थितिस्तस्य पुत्रो वेल्लहलाभिधः // 462 // स चाहारप्रियो बाढं खादन्नास्ते दिवानिशम् / ततो जातं महाजीर्णमन्तर्लीनो महाज्वरः / / 463 // नैवाहाराभिलाषोऽस्य तथापि परिहीयते / जालोद्याने जिगमिषा भक्ष्यभेदाश्च कारिताः // 464 // पश्यतस्तान् प्रववृधे लौल्यं तेन प्रणोदितः / स्तोकस्तोकं स बुभुजे ततो मित्रगणान्वितः // 465 // गतो मनोरमोद्याने निविष्टोऽथ सुखासने / स्तोकस्तोकं स बुभुजे विविधाहारजातकम् // 466 // प्रवृद्धोऽन्तवरस्तस्य समयज्ञो भिषग्वरः / कुमारं ज्वरितं ज्ञात्वा प्रयत्नेन न्यवारयत् // 467 // आहाराद् विनिवर्तस्व छन्नापवरके व्रज / लङ्घनानि कुरुष्वोच्चैरुदकं कथितं पिब // 468 // प्रतिक्रियामिमां सर्वां यदि त्वं न करिष्यसि / भविता सन्निपातस्ते तदा प्राणप्रयाणकृत् // 469 // . श्रुतं वेल्लहलेनेदं नाहारभ्रान्तचेतसा / अहितो वारयन् ज्ञातो वैद्यो हस्ते लगन्नपि // 470 // प्रवृत्तो भोक्तुमाहारं पुरस्तस्य प्रसह्य सः / अजीर्णज्वरतीव्रत्वाद् गलरन्ध्रे ययौ न सः / / 471 // प्रवेशितस्तथाऽप्यन्तस्तेनाऽऽहारं कियानपि / अभूत् ततोऽतिवमनं मिश्रितं तेन भोजनम् // 472 // ततो वेल्लहलो दध्यौ नूनमूनं वपुर्मम / क्षुधया वायुनाऽऽक्रान्तं सञ्जातं वमनं ततः // 473 // भोजनेन ततो रिक्त कोष्ठं सम्पूरयाम्यहम् / ध्यात्वेति वान्तिसंमिश्रं भोजनं भोक्तुमुद्यतः // 47 // समयज्ञोऽथ तद् दृष्ट्वा पूञ्चकारातिखेदवान् / न युक्तं तव देवेदं श्व-काकादिविचेष्टितम् / / 475 / / राज्यं वपुश्च भोगांश्च चन्द्रशुभ्रं यशोऽपि च / हारयस्याशु विष्टासाद्भाविना भोजनेन किम् ? / / 476 // न मेनेऽसौ वचस्तस्य दध्यौ चायं विमूढधीः / न वेत्ति यो मत्प्रकृतिं न रुचिं न हिताहितम् // 477 // भुञ्जानं वातपूर्ण यः क्षुत्क्षामं मां निषेधति / न कार्य तेन मूर्खेण भुझे भोज्यं यथारुचि // 478 // ततोऽसौ बुभुजे भोज्यं सन्निपातमवाप च / जातो वमनबीभत्सः काष्ठवन्नष्टचेतनः // 479 // कुर्वन् घुरघुरारावं विलठन् वान्तिकर्दमे / स शोच्यामप्रतीकारां दशां प्राप्तः सुदारुणाम् // 480 // न त्रातुं तदवस्थं तं समयज्ञो न बान्धवाः / नालं राज्यं न भोगाश्च न देवा-सुर-किन्नराः // 481 // अनन्तकालं तत्रैव स्थातव्यं तेन पापिना / वस्तूनां भेदसिद्धयर्थं दृष्टान्तोऽयं निवेदितः // 482 // ततोऽगृहीतसङ्केता भ्रान्तचित्ता स्फुटं जगौ / संसारिजीव ! किं पृष्टं दत्तं किं चोत्तरं त्वया ? // 483 // नद्यादिवस्तुभेदार्थ प्रश्नो हि विहितो मया / घटमानोपसंहारा तत्र नेयं कथा तव // 484 // तेन प्रज्ञाविशालाऽथ तद्दार्टान्तिकयोजने / व्यापारिता स्फुटं प्राह भावाभिज्ञमतल्लिका // 485 // हेतुYढस्य भावस्य बोधे भावान्तरं ततम् / प्रकाश्यन्तेऽन्यमणयः प्रभया हि महामणेः // 486 // 1. ता जगाद भव // 2. अपश्यदाहृतं भोज्यं वायुस्पर्शादिना ततः // 166 //