________________ ग्लो० 228-283 ] वैराग्यरतिः। छलितो लोलतावाक्यानडोऽथ रसनां सदा / स्वीकृत्य लालयामास मधु-मद्य-पलादिभिः // 25 // पेयापेयधिया शून्यो भक्ष्याभक्ष्याविशेषवित् / शृङ्गपुच्छपरिभ्रष्टो जातः सोऽथ पशुर्जडः // 258 // यत् क्षणं रसनां तस्य भवेल्लालयतः कचित् / तत् सर्व लोलता प्राह रसग्रसनराक्षसी // 259 // धर्मा-ऽर्थ-काम-मोक्षेभ्यो विमुखो रसनावशः / दुष्कर्मनिरतो लोकैगर्हितो बहुशो जडः // 26 // विचक्षणस्तु न क्षुब्धः श्रुत्वा तां लोलतागिरम् / विधिसृष्टिध्वनेरथं कर्मसृष्टिं विचारयन् // 261 // दध्यौ मध्यस्थधीश्चैवमस्त्येवेयं ममाऽङ्गना / यदास्य कोटरे सृष्टा पोष्या नैवापरीक्ष्य तु // 262 // स्त्रीवाचैव जडस्तत्त्वमज्ञात्वा यः प्रवर्त्तते / नदीतीरस्थतरुवत् स पतत्येव निश्चितम् // 263 // पालनीया ममैषेति लोकयात्रापरोऽथ सः / रसनाया ददौ खाद्यरसं किञ्चिदनादृतः // 264 // अनुवर्त्तयतश्चेत्थं रसना शुभवर्त्मना / लोलतां जयतस्तस्य त्रिवर्गश्रीरुपस्थिता // 265 // ज्ञापिता रसनालाभं जडेनाचारुताऽन्यदा / माता संतुष्टचित्तेन जनकश्चाशुभोदयः // 266 // तावप्यथाहतुः पीतामृतोद्गारसमं वचः / पुण्येनेयं त्वया लब्धा लाल्यते चेति शोभनम् // 267 // इष्टं पित्रुपदिष्टं चेत्यतिलुब्धोऽजनिष्ट सः / एकं हि स्वैरिणी योषाऽन्यच्च कोकिलकूजितम् // 268 // शुभोदयः पिता स्वीयो जननी चारुता तथा / इतो विचक्षणेनाऽपि ज्ञापितौ रसनागतिम् // 269 // बुद्धिस्तथा प्रकर्षश्च विमर्शश्चत्यमी त्रयः / ज्ञापिता रसनाप्राप्ति कुटुम्बं मिलितं च तत् // 270 // ततः शुभोदयः प्राह वत्स ! त्वमपि तत्त्ववित् / तथाऽप्यस्या न विश्वासः कर्त्तव्यो भवता कचित् // 27 // नारी तावत् समस्ताऽपि प्रायः पवनचञ्चला / क्षणं रक्ता विरक्ता च सन्ध्याभ्रपटलोपमा // 272 / / दुर्ग्रहा वारिविधुवन्नदीवन्नीचगामिनी / दृष्टिबन्धेन्द्रजालाभा कौटिल्याहिकरण्डिका // 273 // साक्षादकन्दरा व्याघ्री विषवल्लिरभूमिजा / अनिन्धनाऽनलज्वाला विद्युदस्तनयित्नुजा // 274 // एषा त्वेका वनचरी रसनालोलताऽन्विता / अतिगूढचरित्रा मे भाति नैव तवोचिता // 275 // न ज्ञायते कुतस्त्येयं केनेह प्रेषिताऽऽथवा / मूलशुद्धिस्त्वया कार्या तदस्याः सङ्गमिच्छता // 276 / / यतः"अप्रमादपरोऽप्युच्चैर्मूलशुद्धेरकारकः / पुमान् प्रयाति'निधनं स्त्रीणां हृदयमर्पयन्" // 277|| चारुताऽप्याह वत्सेदं पित्रा ते साधु मन्त्रितम् / ऊचुर्बुद्धयादयोऽपीत्थं तथेयेष विचक्षणः // 278 // रसनामूलशुद्धयर्थमथ कः प्रेषणोचितः ? / इति पृष्टोऽमुना तातो विमर्श तादृशं जगौ // 279 // यतः"विमर्श एव लोकेऽस्मिंस्तत्त्वाऽतत्त्वैकशेषकृत् / कुरुते को विना हंसं क्षौरनीरविवेचनम्" // 28 // "ईश्वरोऽप्यविमर्शः सन् बध्नाति गरलं गले / सविमर्श तु पुरुषोत्तमं श्रीवेणुते स्वतः" // 281 // विचक्षणोऽथ निश्चित्य विमर्श प्रेषणोचितम् / सद्यस्तं प्रेषयामास कृत्वा संवत्सरावधिम् // 282 // पितामहं च पितरं प्रकर्षोऽथ व्यजिज्ञपत् / विना विमर्श न स्थातुं शक्नोमि क्षणमप्यहम् // 283 // 1. निधनं ददानो योषितां मनः // 27 //