________________ श्लो० 166-227 ] वैराग्यरतिः। गतो राजाऽन्यदा वाजिवाहनार्थ वने कचित् / गतः कुतूहलात् तत्र पुरलोकैरहं सह // 198 // श्रान्तस्तत्रैकदेशेऽथ विश्रम्योत्थाय भूपतिः / सामन्तैः सहितो भूपैर्लग्नो द्रष्टुं वनश्रियम् // 199 // विरक्तं तत्र सोऽपश्यद् रक्ताशोकतलस्थितम् / विचक्षणाख्यमाचार्यं कुर्वाणं धर्मदेशनाम् // 200 // रूपं निरूपयंस्तस्य त्रैलोक्यनयनामृतम् / नरवाहनपृथ्वीशः परं हर्षमुपागतः // 201 // दध्यौ चायममुष्याऽभूत् किं भवोद्वेगकारणम् ? / चूर्णितो मदनो येन यौवनारामचारिणा // 202 // गत्वा नत्वा पदाम्भोजं पृच्छाम्येनं शुभाशयम् / विचिन्त्यैवं नृपो गत्वा प्रणनाम गुरोः क्रमौ // 20 // तेनाऽथ दत्तधर्माशीनिषण्णोऽसौ महीतले / उपविष्टा यथास्थानं प्रणम्याऽन्येऽपि मानवाः // 204 // मया तु तादृशस्यापि सूरेनैव पदद्वयम् / नतं स्तब्धेन हृदये शैलेन्द्रीयविलेपनात् // 20 // निषण्णोऽनम्र एवाऽहं सूरिधर्ममभाषत / भो भव्या ! भवविस्तारः प्रदीप्तोदरसन्निभः // 206 // अस्य विध्यापने यत्नः कर्त्तव्यः सुखमिच्छता / तद्धेतुर्धर्ममेघश्च पावनागमभावनः // 207 // तदागमोऽभ्युपेयस्तद्विदः सेव्या दिवानिशम् / भावनीयमनित्यत्वं त्याज्याऽपेक्षा हृदाऽसताम् // 208 // ... भाव्यमाज्ञाप्रधानेनोपादेया प्रणिधानधीः / पोष्या च साधुसेवातो गोप्या प्रवचनक्षतिः / / 209 // ... . विधिप्रवृत्त एतच्च सम्पादयति निश्चितम् / यतितव्यं विधौ तेन पुरस्कृत्यागमं बुधैः // 210 // स्वरूपं प्रत्यभिज्ञेयमालम्ब्या लिङ्गशुद्धता / सेव्यो योगश्च निर्द्वन्द्वः प्रतीकार्या कुभावना // 211 // यात्येवं यतमानानां कर्म सोपक्रमं क्षयम् / निरुपक्रमकर्मोग्रानुबन्धश्च निवर्त्तते // 2.12 // 2 // . इमां गिरं गुरोः श्रुत्वा भावं केऽपि दधुव॑ते / केचन श्राद्धधर्मे च केऽपि भद्रकतां ययुः // 213 // दध्यावत्रान्तरे तातो हृगतं प्रश्नयाम्यहम् / पप्रच्छाऽसौ ततो भालविन्यस्तकरकुड्मलः // 214 // रूपमप्रतिरूपं ते भाग्यं सौभाग्यजन्मभूः / भदन्त ! भवतां जातं किन्तु वैराग्यकारणम् ? // 215 // सूरिराह महाराज ! शृणु प्रयतमानसः / अस्तीह भूतलं नाम नगरं सुमनोहरम् / / 216 // तत्रातुलप्रतापाऽऽज्ञो भूपोऽस्ति मलसञ्चयः / तत्प्रिया मलपङ्क्तिश्च शुभाशुभविधौ विधिः // 217 // पुत्रोऽस्ति जगदाह्लादी तयोरेकः शुभोदयः / अन्योऽशुभोदयो नाम जगत्सन्तापकारकः // 2 18 // भार्या शुभोदयस्याऽस्ति चारुता जनशर्मदा / अचारुताख्या त्वशुभोदयस्य जनभीतिकृत् // 219 / / विचक्षणोऽजनि शुभोदय-चारुतयोः सुतः / अन्ययोस्तु जडो नाम गुणग्रामपराङ्मुखः / / 220 // अक्षुद्रः प्रशमी दान्तः पूजको गुरुसन्ततेः / देवसेवापरो दाता गुणदोषविशेषवित् // 221 // ...... लक्ष्मीलाभेऽप्यनुत्सिक्तो व्यसनेऽप्यविषादवान् / परनिन्दा-निजलाधारहितः परकार्यकृत् // 222 // .. मध्यस्थः सत्यवादी च विनीतो नतवत्सलः / मार्गानुसारी मतिमान् जातस्तत्र विचक्षणः // 223 // ... जडस्त्वभूद् विपर्यस्तस्वान्तः पैशून्यभाजनम् / सत्य-संयम-सन्तोष-शौचसंस्कारवर्जितः // 224 // प्रतिज्ञास्खलितो देव गुरुनिन्दाविधायकः / क्षुद्रो लोभरतिर्दीनः सुहृदां चित्तभेदकृत् // 225 // भिन्नो वाचि क्रियायां च जातानन्दः परापदि / परसम्पदि जातातिर्गर्वाध्मातोऽफल क्रियः // 226 // ईदग्लक्षणयुक्तौ तौ स्वगृहे सुखलालितौ / विचक्षण-जडौ प्राप्तौ तारुण्योल्लसितां दशाम् // 227 //