________________ प्रलो० 637-694 ] वैराग्यरतिः। द्वितीय क्रोध-शोकाऽर्ति-मान-माया-भयादिकम् / तृतीयमङ्गं तद्धेतु स्त्री-नरौ तादृशा जनाः // 666 // आद्यं स्वाभाविकं तत्र कुटुम्बमविनश्वरम् / आविर्भाव-तिरोभावधर्मकं मोक्षदायकम् // 667 // औपाधिकं द्वितीयं च स्वाभाविकधिया धृतम् / अनाद्यन्तमभव्येषु भव्येष्वस्तादि चान्तवत् // 668 // आविर्भाव-तिरोभावधर्मकं भवकारणम् / एकान्ताहितशीलं च प्रकृत्याऽधोगतिप्रदम् // 669 // तृतीयं सादि सान्तं च यादृच्छिकमुपाधिजम् / अन्तःकुटुम्बपोषेण भवनिर्वाणकारणम् / / 670 // सर्वसंसारिणां तस्माद् द्वितीयेऽत्र कुटुम्बके / सुहृद्वैश्वानरोऽवश्यं हिंसा भार्या च निश्चिता // 671 // आद्यस्वाभाविकं मुक्त्वा द्वितीये कथमादरः / जीवानामिति जिज्ञासुर्जगदे सूरिणा नृपः // 672 // अभिभूतं द्वितीयेन नित्यमायं कुटुम्बकम् / तेन तद्दर्शनाऽभावात् तद्गुणानादरो नृणाम् // 673 / / आविर्भूतं सदैवाऽस्ति द्वितीयं च कुटुम्बकम् / पुरः स्फुरति तत्रोचैर्नृणां प्रेम प्रवर्धते // 674 // विश्रब्धास्तत्र पश्यन्ति न दोषं जानते गुणम् / शत्रुबुद्ध्या च पश्यन्ति तदोषस्य प्रकाशकम् // 675 // भूपः प्राहाऽनयोः श्रेष्ठा गुण-दोषविशेषधीः / गुरुर्जगौ तदर्थं नो यत्नोऽयं देशनाविधेः // 676 // विना स्वयोग्यतां नैव शक्यं ज्ञापयितुं परम् / उदास्महे त्वयोग्येषु तद्योग्येषु यतामहे // 677 // नृपो जगावयोग्यानां भगवन् ! चिन्तया कृतम् / मया बुद्धो विशेषोऽयं सिद्धं मम समीहितम् // 678 // यतः परोपकारः कर्त्तव्यः सत्यां शक्तौ मनीषिणा / परोपकारासामर्थ्य कुर्यात् स्वार्थे महादरम् // 679 // भगवानाह पृथ्वीश ! न त्राणं ज्ञानमात्रतः / श्रद्धा-क्रियान्वयादेवं तदभीष्टार्थसाधकम् // 680 // तत्र श्रद्धानमस्त्येव तव विस्तारि सर्वतः / क्रियां तु यदि शक्नोषि कत्तुं तत् सिध्यतीहितम् // 681 // परं तन्निधुणं कर्म नृपतिः प्राह कीदृशम् ? / गुरुर्जगाद कुर्वन्ति मुनयो यदनारतम् // 682 // अनादिप्रेमसम्बन्धं द्वितीयं यत् कुटुम्बकम् / आयेन योधयन्त्युच्चै|राघोरबलेन तत् // 683 // द्वितीयस्य कुटुम्बस्य मूलोत्पत्तिनिबन्धम् / घातयन्ति विवेकेन महामोहपितामहम् // 684 // चूर्णयन्तो न खिद्यन्ति रागं वैराग्ययन्त्रतः / एतत्कुटुम्बाधिकृतं महाबलमहारथम् // 685 // नन्ति मैत्रीशरेणोच्चै रागस्यैव सहोदरम् / द्वेषं न हृदये जातु पश्चात्तापं च कुर्वते // 686 // पाटयन्तः क्रोधबन्धुं क्षमया क्रकचेन च / उल्लसन्ति तथा मानं निघ्नन्तो मार्दवासिना // 687 // मायामाजवदण्डेन निघ्नन्ति जरतीमपि / सन्तोषाग्नौ दहन्त्युच्चैर्लोभं बालमपि क्षणात् // 688 // कामं च ब्रह्महस्तेन मर्दयन्तीव मत्कुणम् / नन्ति शोकं धिया शक्त्या चित्तधैर्येषुणा भयम् // 689 // हास्यं रतिं जुगुप्सां चाऽरतिं चाऽनादिवत्सलाम् / पञ्चाक्षभ्रातृभाण्डानि दलयन्ति दमेषुणा // 690 // इत्थं कृत्वा द्वितीयस्य कुटुम्बस्य क्षयं क्षणात् / प्रथमस्य कुटुम्बस्य वर्धयन्ति बलं सदा // 691 / / बले चाद्यकुटुम्बस्य प्रवृद्धे भग्नपौरुषम् / अमीषां बाघकं न स्यात् तद् द्वितीयं कुटुम्बकम् // 692 // तृतीयं पोषकं ज्ञात्वा द्वितीयस्य त्यजन्ति ते / जेतुं द्वितीयमत्यक्ते तृतीये नैव शक्यते // 693 // अतो यद्यस्ति ते चित्तं निर्वाणसुखलालसम् / राजंस्तन्निधुणं कर्म मयोक्तमिदमाचर // 694 //