________________ श्लो० 579-636] वैराग्यरतिः। पृष्टेनकाकिताहेतुर्नोक्तोऽरुचिभयान्मया / ममापि किमिदं गोप्यं जगौ कनकशेखरः // 609 // मयोक्तं गोप्यमेवाऽस्ति निर्बन्धं स ततोऽकरोत् / अवश्यं वाच्यमेवेति ततोऽहं ज्वलितो हृदि // 610 // गिरं नाद्रियते मेऽसावित्यस्यैव कटीतटात् / असिपुत्रीं समाकृष्य मारणायाहमुद्यतः // 611 // जातः कोलाहलः स्तब्धो वनदेवतया परम् / उत्क्षिप्तो व्योममार्गेण तेषामेवाऽथ पश्यताम् // 612 / / सन्धिदेशेऽम्बरीषाणां नीतोऽहं चरटैरथ / उद्गीर्णक्षुरिकस्तत्र दृष्टो नाग इवोत्फणः // 613 // चरटाः प्रत्यभिज्ञाय पादयोर्मम तेऽपतन् / पृष्टस्तैरथ वृत्तान्तो वक्तुं न शकितं मया // 614 // शकितं नोपवेष्टुं च तदानीताऽऽसने मया / देवतोत्तम्भयामास ततो दीनेषु तेषु माम् // 615 // पृष्टे पुनर्व्यतिकरे तैरहं ज्वलितो भृशम् / अलीकवत्सलैलोंकैरासितुं न लभे कचित् // 616 // तान् मुहुः पृच्छतः क्रोधादलब्धवचनानथ / हन्तुं प्रवृत्तो बद्रोऽहं गतोऽस्तं च विभाकरः // 617 // दध्युस्ते शत्रुरेवायं येन स्वामी हतो हि नः / जघानैतांश्च यो घात्यः प्रतिपन्नस्तथापि न // 618 // न च धारयितुं शक्यो वस्त्रबद्ध इवानलः / त्याग एवाऽस्य तच्छेयानिति गत्र्यां निवेशितः // 619 / / विभावर्यैव तैर्वेगान्नीतो द्वादशयोजनीम् / त्यक्तः शार्दूलनगरोद्याने मललयाभिधे // 620 // अकस्मात् तत्र सुरभिर्विजजृम्भेऽथ मारुतः / अपि नैसर्गिक वैरं त्यक्तं हिंस्रैश्च जन्तुभिः // 621 // अवतीर्णाश्च वाचालभृङ्गालीगीतवैभवाः / सममेवर्तवः सर्वे शान्तमीषन्मनोऽपि मे // 622 // आगता देवनिकराश्चलत्कुण्डलकान्तयः / मणिकुट्टिममातेने भूतले तैः परिस्कृते // 623 // कृतं तस्योपरि स्वर्णकमलं विमलाशयैः / तत्रागत्योपविष्टोऽथ विवेकाचार्यकेवली // 624 // निषण्णा परिषत् प्रहा गुरुणा देशना ददे / हिंसा-वैश्वानरौ भीती दूरदेशे स्थितौ मम // 625 // ज्ञात्वाऽरिदमनो राजा गुर्वागमनमागतः / तथा मदनमञ्जूषा सहैव रतिचूलया // 626 // नत्वा राजा स्थितः सूरेः पुरः शुश्राव देशनाम् / देशनान्ते च पप्रच्छ संशयं स्वमनोगतम् // 627 // पैद्मभूमीभृते नन्दिवर्धनाय गुणालय ! / दातुं मदनमञ्जूषां दूतोऽभूत् प्रहितो मया // 628 // कियानपि गतः कॉलो वार्तालेशोऽपि न श्रुतः। उक्तं च पुरुषैरन्यभस्मीभूतं जयस्थलम् // 629 // ध्यातं मया किमुत्पातादुत शापान्महामुनेः / दग्धं तच्चोरधाटया वा ततः शङ्कां परां गतः // 630 // अस्य शङ्कान्धकारस्य कत्तुं प्रलयमर्हति / भवानेव जगन्नेत्रपद्मोल्लासी दिवाकरः // 631 // सूरिराह महाराज ! पश्यस्येनं सभान्तिके / बद्धवक्त्रं तिरश्चीनं बाहुबन्धनियन्त्रितम् // 632 // राजाऽऽह सुष्टु पश्यामि सूरिराहायमेव हि / भस्मीकर्ता पुरस्याऽस्ति कोऽयमित्याह भूधनः // 633 // गुरुराह तवैवासौ जामाता नन्दिवर्धनः / विस्मितं तं पुनः प्राह सर्वोदन्तमुदारधीः // 634 // अथैनं मुत्कलीकर्तुं भूपतिः पूर्वपक्षयन् / हृदि सिद्धान्तयामास कृपा) नैष जात्विति // 635 // ततः पप्रच्छ भूपालः केवलज्ञानिनं गुरुम् / श्रुतो बहुगुणो ह्येष कृतवान् कथमीदृशम् ? // 636 // 1. ण जनानामथ // 2. उत्क्षिप्तक्षुरिक // 3. पद्मराक्षे मया नन्दि॥४. अषां प्रहितोऽभून्महत्तमः॥६२८॥ कि // 5. कालो तदुदन्तोऽपि //