________________ श्लो० 538-578] वैराग्यरतिः। स्वभावसंज्ञाय महत्तमाय च प्रकाश्य चास्यैव सदाऽनुयायिनीम् / प्रसाद्य गूढां भवितव्यतां प्रियां स्ववर्गमुच्चैरनुगम्य कर्मराट् / / 552 // ततः किमेतर्हि विगर्हिताशये विधेयमित्याहितवाचि पार्थिवे / निमित्तवित् प्राह किलाऽधुना हिता भवत्युपेक्षा भवतां च मौनिता // 553 // तातेन परिपूज्योचैः प्रहितोऽथ निमित्तवित् / गतेषु केषुचिजाता दिनेषु च पितुर्मतिः // 554 // युवराज करोम्येनमानन्दी नन्दिवर्धनम् / महत्तमानामथ तद् ज्ञापितं स्वीकृतं च तैः // 555 // कृताभिषेकसामग्री समाहूतोऽहमञ्जसा / अत्रान्तरे प्रतीहारी प्रणिपत्य व्यजिज्ञपत् // 556 // देवाऽरिदमनस्याऽस्ति स्फुटवाक्यो महत्तमः / द्वारि तत्र निदेशः कस्तातेनोक्तं प्रवेशय // 557 // ततः प्रवेशितोऽवादीत् स तातं विदितस्तमाम् / अस्ति राजाऽरिदमनः शार्दूलपुरनायकः // 558 // रतिचूला महादेवी तस्या रतिरिवाऽपरा / तस्या मदनमञ्जूषा दुहिताऽस्ति गुणोदधिः // 559 // तया लोकप्रवादेनाऽऽकर्णितो नन्दिवर्धनः / गुणानामेकभूस्तत्र रागोऽस्या ववृधे भृशम् // 560 // स्वाशयो रतिचूलायै तया तूर्णं निवेदितः / नृपायोक्तस्तया तेन दित्सुना प्रहितोऽस्मि ताम् // 561 // तातेन प्रतिपन्नं तद्वचनं मन्त्रिणो गिरा / मयाऽथोक्तमितः स्थानात् कियद्रे पुरं तव ? // 562 // स्फुटवाक् प्राह साधं तद् योजनानां शते स्थितम् / मैवं वादीमया प्रोक्तं गव्यूतोने वदाऽथ तत् / / 563 // जगौ सोऽथ कुमारेण न सम्यगवधारितम् / बाल्ये श्रुतं तद्भवता मयाऽऽप्तेभ्यो विनिश्चितम् // 564 // मामलीकं करोत्येष इति चिन्तयतो मम / वैश्वानरेगोल्लसितं हसितं हिंसया तदा // 565 // योगशक्तिं प्रयुज्यैतौ तनौ विविशतुर्मम / प्रलयाग्निरहं जातः समाकृष्टोऽसिरुच्चकैः // 566 // पुण्योदयस्तदा दध्यौ मम पूर्णोऽधुनाऽवधिः / अतः परं न मत्सङ्गयोग्योऽयं नन्दिवर्धनः // 567 // इतोऽपक्रमणं श्रेय इति ध्यात्वा स निर्गतः / मया हाहारवं कुर्वन् स दूतो द्विदलः कृतः // 568 // ततो हा पुत्र ! किमिदमकर्त्तव्यमनुष्ठितम् ? / इति ब्रुवन् पितोत्थाय चलितो मम सम्मुखम् // 569 // ध्यातं मयाऽयमप्येतद्रूप एव दुराशयः / मामकार्यकृतं ब्रूते हन्तव्योऽयमपि द्रुतम् / / 570 // इति विस्मृत्य तातत्वमज्ञात्वा स्नेहपूर्णताम् / उपकारित्वमैज्ञात्वाऽनालोच्य दुरितागमम् // 571 // कर्मचण्डालतां धृत्वा तातोऽपि दलितोऽसिना / आक्रन्दन्ती ततो माता ग्रहीतुमसिमागता // 572 // छिन्ना साऽपि च खड्गेन वैरिणीति धिया मया / अथ त्रीण्यपि लग्नानि युगपद् भुजयोर्मम // 573 // अन्याय्यं किं कृतमिति पूकुर्वन् शीलवर्धनः / निवारणोद्यता रत्नवती च मणिमञ्जरी // 574 // एकैकेन प्रहारेण हतानि त्रीण्यपि क्षणात् / दधावे चेदमाकर्ण्य द्रुतं कनकमञ्जरी // 575 // मयाऽनुध्यातमेषाऽपि पापा मद्वैरिरागिणी / विस्मृत्य स्नेहपूर्णत्वं साऽपि छिन्नाऽसिना ततः // 576 // अत्रान्तरे च संरम्भाद् गलितं मत्कटीतटात् / परिधानं निपतितमुत्तरीयं महीतले // 577 // विकीर्णकेशो नग्नश्च जातो वेतालसन्निभः / तादृशं मां समुद्रीक्ष्य जहसुम्भिपङ्क्तयः // 578 // 1. तस्यास्ति रतिजित्वरी // तस्या म // 2. मध्यात्वा //