________________ 37 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [वतीय सर्गः स्थित्यै तनोस्तत्प्रियमाचरन्तोऽप्यपास्तलोभा भृशमुत्तमास्ते / स्वस्मिन् मनीषी श्रुतमेनमर्थमयोजयद् मध्यमधीस्तु तस्मिन् // 203 // स्वरूपमुञ्चैरथ मध्यमानां जगौ गुरुः स्पर्शननोदिता ये। मुह्यन्ति संसारसुखे विचित्रे संशेरते पण्डितनोदिताश्च // 204 // दधत्यलं भेदिनियोगि-भोगिमतद्वये कालविलम्बपक्षम् / स्पर्शानुकूला अपि लोकलज्जावशेन नात्यन्तविरूपचेष्टाः // 205 // बुद्ध्वाऽपि वाक्याद् विदुषां विशेषमदृष्टदुःखा न तदाऽऽचरन्ति / अकीर्तिभाजश्च जघन्यसङ्गात् कुर्वन्ति विद्वद्वचनानुवृत्तिम् // 206 // ते मध्यमा मध्यमबुद्धयः स्युरितीदमाकर्ण्य स मध्यबुद्धिः / स्वस्मिन् स्वसंवेदनतो युयोज सर्व मनीषी च विविच्य तस्मिन् // 207 // गुरुर्बभाषेऽथ जघन्यरूपं यैः स्पर्शनं बन्धुतयाऽवबुद्धम् / कुप्यन्ति ये च प्रियभाषकाय येऽनार्यकार्याद् भुवि न त्रपन्ते // 208 // दुःखादखिन्ना गलिगोस्वभावान्मुखं मुहुर्ये विषये क्षिपन्ति / असद्ग्रहग्रस्तधियस्तपस्विप्रत्यर्थिनस्तेऽत्र जना जघन्याः // 209 // मनीषिणा मध्यमबुद्धिना च विनिश्चितं वाक्यमिदं निशम्य / / जघन्यवृत्तं स्फुटमेव बाले व्याक्षिप्तचित्तो न विवेद बालः // 210 // अथाऽऽह सूरिणिता नरेन्द्र ! जघन्यभाजो बहुलास्त एव / स्तोकास्तदन्ये स्विति नैव सर्वे धर्म सृजन्तीति हि युक्तमुक्तम् // 211 // अत्रान्तरे प्राह सुबुद्धिमन्त्री श्राद्धः किमेतेषु पुनर्निमित्तम् ? / गुरुर्जगौ मातृविभेद एव सर्वोत्तमस्तु स्वविलासरूपः // 212 // प्रत्यब्रवीद् मन्त्रिवरः किमेते सदास्थिता वा परिवृत्तिभाजः ? / गुरुर्जगी कर्मविलासक्लप्तविवृत्तिभाजोऽपि विनाऽन्यमन्ये // 213 // मनीषिणाऽचिन्त्यत युक्तमेतद् मातुश्च तातस्य विज़म्भितं मे / / सुबुद्धिना पृष्टमथो महात्मन् ! केन स्युरुत्कृष्टतमा मनुष्याः ! // 214 // गुरुर्बभाषे न विनाऽस्ति हेतुः सर्वोत्तमत्वे निजवीर्यलाभम् / समाधिभाजः स च भागवत्या प्रव्रज्ययैव प्रथतेऽनुपाधिः // 215 // दध्यौ मनीषी मम सैव युक्ता लातुं कृतं शेषविडम्बनाभिः / .. व्रताहेच्छा च मनीषिणोऽभूदशक्यधीमध्यधियोऽधिका च // 216 // पुनः सुबुद्धिनिजगाद मन्त्री धर्मो न नस्तादृशवीर्यहेतुः / गुरुर्जगौ मध्यमवर्गयोग्यः परम्पराहेतुरसौ प्रसिद्धः // 21 // .. .