________________ प्रस्तावना है। इस भाष्य और अकलङ्कदेव के ग्रन्थों में कई चर्चाएँ ऐसी पाई जाती हैं जो परस्पर में मेल खाती हैं। तथा, उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि एक पर दूसरे का प्रभाव है। यथा, चक्षु के प्राप्यकारित्व का खण्डन करते हुए अकलंक ने लिखा है-“यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिन्द्रियवत् स्पृष्टमञ्जनं गृह्णीयात् , न च गृह्णाति, अतो मनोवदप्राप्यकारीति अवसेयम्।" विशेषावश्यक भाष्य में भी निम्न गाथा का न केवल आशय किन्तु शब्दरचना भी अकलंक की शब्दावली से मिलती है। तुलना कीजिये "जइ पत्तं गेण्हेज्ज उ तग्गयमंजण-रओ मलाईयं / पेच्छेज्ज, जं न पासइ अपत्तकारी तओ चक्खु // 212 // " अकलंक की तरह क्षमाश्रमणजी भी इन्द्रियनिमित्तक ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। तथा शब्दयोजनासहित इन्द्रियमनोनिमित्तक ज्ञान को श्रुतज्ञान और शेष को मतिज्ञान कहते हैं। दोनों आचार्य जिनशासन के युगप्रधान पुरुषों में गिने जाते हैं। दोनों में केवल इतना ही अन्तर प्रतीत होता है कि यदि क्षमाश्रमण जी आगमविशारद और तर्ककुशल व्यक्ति थे तो अकलंकदेव तर्कविशारद और आगमकुशल व्यक्ति थे। क्षमाश्रमण जी का समय अभी तक सुनिश्चित रीति से निर्णीत नहीं हो सका है / पट्टावलियों के आधार पर उन्हें छठी शताब्दी का विद्वान माना जाता है / यतः हरिभद्रसूरि ( ई० 700-770 ) ने उनका उल्लेख किया है अतः ईसा की आठवीं शताब्दी के बाद के विद्वान तो वे हो ही नहीं सकते / और विशेषावश्यकभाष्य में सुबन्धु की वासवदत्ता का उल्लेख होने के कारण छठी शताब्दी से पहले के विद्वान नहीं हो सकते / डा० कीथै 'वासवदत्ता' को सातवीं शताब्दी की रचना बतलाते हैं, किन्तु बाणकविरचित हर्षचरित में उसका उल्लेख है और बाणकवि राजा श्रीहर्प ( ई० 606-647 ) का समकालीन था / अतः 'वासवदत्ता' को सातवीं शताब्दी की रचना नहीं माना जा सकता। वासवदत्ता में न्यायवार्तिककार उद्योतकर का उल्लेख है अतः उद्योतकर को अधिक से अधिक छठी शताब्दी के पूर्वार्ध का विद्वान मान कर, वासवदत्ता को छठी शताब्दी के उत्तरार्ध की रचना मानना होगा। ऐसी परिस्थिति में क्षमाश्रमण जी ई० 600 से 750 तक के मध्यकाल के विद्वान ठहरते हैं। 1 राजवार्तिक पृ. 48 / 2 " इंदियमणोणिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं / निययत्थुतिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं // 10 // " 3 देखो ‘हरिभद्र का समयनिर्णय' शीर्षक लेख / 4 गा० 1508 / 5 इण्डियन लॉजिक / 6 " कवीनामगलद्दो नूनं वासवदत्तया / " परि० 1 / 7 " न्यायस्थितिमिवोद्योतकरस्वरूपां वासवदत्तां ददर्श।" 8 डा. कीथ अपने इंडियन लॉजिक में लिखते हैं कि उद्योतकर ने वादविधि और वादविधान टीका का उल्लेख किया है संभवतः ये दोनों ग्रन्थ धर्मकीर्ति का वादन्याय और विनीतदेव की वादन्यायटीका ही हैं। किन्तु उनकी यह संभावना ठीक नहीं है / क्यों कि उस दशा में उद्योतकर को आठवीं शताब्दी के भी बाद का विद्वान मानना होगा, क्यों कि विनीतदेव का समय आठवीं शताब्दी माना जाता है। और ऐसी परिस्थिति में ‘वासवदत्ता' की ऐतिहासिक शृङ्खला छिन्नभिन्न हो जायेगी। उद्योतकर ने अपने न्यायवार्तिक में घुघ्न का निर्देश किया हैं जिसे राजा हर्ष की राजधानी थानेश्वर से एक सड़क जाती थी। इस पर डा. कीथ लिखते हैं कि उद्योतकर राजा हर्ष का समकालीन था। किन्तु डाक्टर सा० की यह कल्पना भी निराली ही जान पड़ती है। थानेश्वर के निकटवर्ती त्रुघ्न ग्राम का निर्देश करने से यही अनुमान किया जा सकता है कि वे थानेश्वर के निवासी थे जैसा कि डाक्टर विद्याभूषण ने लिखा है, न कि किसी के समकालीन / तत्त्वसंग्रह की भूमिका में उद्योतकर का समय छठी शताब्दी का उत्तरार्ध निर्धारित किया है /