SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायकुमुदचन्द्र दूसरे स्थल पर 'हेतुलक्षणं वार्तिककारेण एवमुक्तम् ' लिखकर उद्धृत किया है / स्वर्गीय डाक्टर पाठक उसी गलतफहमी के आधार पर लिखते हैं कि विद्यानन्द ने 'वार्तिककार' शब्द से स्वयं अपना ही उल्लेख किया है ( क्योंकि वे श्लोकवार्तिक के रचयिता हैं)। यदि डाक्टर पाठक पात्रकेसरी और विद्यानन्द के पृथक् व्यक्तित्व से परिचित होते और अकलंक के न्यायविनिश्चय का अवलोकन कर पाते तो उनसे उक्त भूल न हुई होती। यथार्थ में 'वार्तिककार' पद से विद्यानन्द, राजवार्तिककार अकलंकदेव को ओर संकेत करते हैं। क्योंकि उन्होंने न्यायविनिश्चय में उक्त श्लोक को देखा होगा और संभवतः पात्रकेसरी का विलक्षणकदर्थन या उसके सम्बन्ध में प्रचलित किंवदन्ती का उन्हें पता न होगा, अतः उसे अकलंकरचित ही समझा होगा। विद्यानन्द और पात्रकेसरी में ऐक्य मान लेने के कारण डा० पाठक से एक अन्य भूल भी हो गई है / वे लिखते हैं कि पात्र केसरि ने धर्मकीर्ति के विलक्षण हेतु पर आक्रमण किया है। विद्यानन्द को पात्रकेसरी मान लेने की दशा में तो डा० पाठक का लिखना ठोक है क्योंकि विद्यानन्द धर्मकीर्ति के बाद में हुए हैं। किन्तु पात्रकेसरी का एक स्वतंत्र विद्वान् होना और अकलंक के पूर्ववर्ती होना डाक्टर पाठक के मत को भ्रामक सिद्ध करता है। ___ वादिराज के अन्य उल्लेखों से पता चलता है कि अकलंकदेव ने पात्रकेसरी के 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामक शास्त्र से केवल उक्त श्लोक ही नहीं लिया, किन्तु कुछ अन्य सामग्री भी ली है। अनुमानप्रस्ताव की एक अन्य कारिका की उत्थानिका में वे लिखते हैं-"ऍषां त्रैविध्यनियम प्रतिषिध्य पात्रकेसरिणाऽपि तन्नियमः प्रतिषिद्धः इति दर्शयन् तद्वचनान्याह" / उसी प्रस्ताव में, जातियों का वर्णन करते हुएँ, एक कारिका के 'शास्त्रे वा विस्तरोक्तितः' पद का अर्थ करते हुए वे लिखते हैं-"त्रिलक्षणकदर्थने वा शास्त्रे विस्तरेण श्री पात्रकेसरिस्वामिना प्रतिपादनात् / " ___ इन उल्लेखों से पता चलता है कि 'त्रिलक्षणकदर्थन' में अनुमान तथा उससे सम्बद्ध बहुत सी बातों का विस्तृत वर्णन था। और अकलंक ने उससे बहुत कुछ ग्रहण किया है। ___ मल्लवादी और अकलङ्क-अकलक ने नयों का विशेष विवरण जानने के लिये नयचक्र देखने का अनुरोध किया है। दिगम्बर साहित्य में नयचक्र नाम से जो छोटा सा ग्रन्थ उपलब्ध है वह अकलङ्क से कई सौ वर्ष बाद में रचा गया है, तथा उसके लघुनयचक्र नाम और अन्य उल्लेखों से यह प्रमाणित होता है कि नयचक्र नाम का कोई वृहत् ग्रन्थ भी था। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मल्लवादी नाम के एक तार्किक विद्वान् हो गये हैं जिन्होंने बौद्धों को जीता था। उनका बनाया 'द्वादशारनयचक्र' नाम का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-सिंहगणिक्षमाश्रमण की टीकासहित-उपलब्ध है / अतः यही संभावना की जाती है कि अकलङ्क ने मल्लवादिरचित नयचक्र का ही उल्लेख किया है। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण और अकलङ्क-श्वेताम्बर सम्प्रदाय में आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण एक बहुत ही समर्थ और आगमकुशल विद्वान हो गये हैं। इनका विशेषावश्यकभाष्य सुप्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण प्रन्थ है, उसी के कारण भाष्यकार नाम से भी उनकी ख्याति 1 पृ. 205 / 2 भा० प्रा०वि० पूना की पत्रिका, जि० 12, पे० 71-80 पर मुद्रित 'धर्मकीर्ति के त्रिलक्षणहेतु पर पात्रकेसरी का आक्रमण' शीर्षक लेख / 3 न्या. वि. वि. पृ० 510 पूर्व० / 4 न्या. वि. वि. पृ. 527 उ०। 5 “इष्ट तत्त्वमपेक्षातो नयानां नयचक्रतः।" 3-91, म्या• वि.।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy