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________________ 75 मस्तावना यदि ऐसा है तो इस हेतुलक्षण को सर्वदर्शी भगवान् सीमन्धर स्वामी का मानना चाहिये, क्योंकि पहले उन्होंने ही "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्' इस वाक्य की रचना की थी। यदि कहा जाये कि इसके जानने में क्या साधन है तो 'पात्रकेसरी ने त्रिलक्षणकदर्थन की रचना की थी। इस बात के जानने में क्या साधन है ? यदि कहा जाये कि यह बात आचार्यपरम्परा से प्रसिद्ध है तो उक्त श्लोक के सीमन्धरस्वामिरचित होने में भी आचार्यप्रसिद्धि है ही। तथा उसके सीमन्धर रचित होने की कथा भी सुप्रसिद्ध है। ........ यदि यह कहा जाये कि सीमन्धर स्वामी ने पात्रकेसरी के लिये उक्त श्लोक की रचना की थी, अतः वह श्लोक पात्रकेसरिरचित कहा जाता है तो समस्त शास्त्र तीर्थकर विहित न कहे जाकर शिष्यरचित कहे जाने चाहिये, क्योंकि शिष्यों के लिये ही उनका विधान किया गया था / अथवा वह पात्रकेसरिरचित भी न कहा जाना चाहिये क्योंकि उन्होंने भी दूसरों के लिये ही उसे रचा था। इसी प्रकार दूसरों ने भी दूसरों के लिये और उन दूसरों ने भी और दूसरों के लिये रचना की थी, अतः वह किसी का भी रचित नहीं कहा जायेगा। और ऐसी अवस्था में मूल सूत्रकार (अकलंक ) उसे किसी का भी नहीं बतला सकते थे। अतः समस्त जगत का साक्षात्कार करके उपदेश देनेवाले तीर्थङ्कर भगवान् का ही उक्त हेतु है यह निश्चित है, और इसी लिये उसे 'अमलालीढ' बतलाया है।" इस चर्चा से यही निष्कर्ष निकलता है कि अकलंकदेव ने भी उक्त हेतुलक्षण को स्वामी का बतलाया है और टोकाकार अनन्तवीर्य उसके 'अमलालीढ' विशेषण के आधार पर, प्रचलित किंवदन्ती के अनुसार स्वामी का अर्थ सीमन्धरस्वामी करते हैं, जब कि कोई कोई विद्वान् 'स्वामी' से पात्रकेसरी का ग्रहण करते हैं। भट्टारक प्रभाचन्द्र के गद्य कथाकोश में पात्रकेसरी की कथा दी गई है। उसमें बतलाया गया है कि बौद्धों से शास्त्रार्थ करने के अवसर पर, पद्मावती देवी ने सीमन्धर स्वामी के समवशरण से उक्त श्लोक लाकर पात्रकेसरी को दिया था, जिससे वे बौद्धों के विलक्षणवाद का कदर्थन करने में समर्थ हुए थे। श्रवणवेलगोला की मल्लिषेणप्रशस्ति में भी एक श्लोक इसी आशय का इस प्रकार दिया है “महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् / पद्मावतीसहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कर्तुम् // " उक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि अकलंक के पहले पात्रकेसरी नाम के एक प्रभावशालो आचार्य हुए थे। उन्होंने विलक्षणकदर्थन नाम का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रचा था और उसमें 'अन्यथानुपपन्नत्वं' आदि श्लोक मौजूद था। उसे अकलंक ने अपने प्रकरणों में ज्यों का त्यों सम्मिलित कर लिया। ___ 'सम्यक्त्वप्रकाश' आदि कुछ अर्वाचीन ग्रन्थों के उल्लेखों के आधार पर ऐतिहासिकों में एक गलतफहमी फैल गई थी कि विद्यानन्द का ही अपरनाम पात्रकेसरी है और 'अन्यथानुपपन्नत्वम्' आदि श्लोक भी उन्हीं का रचा हुआ है / विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में एक स्थल पर तो उक्त श्लोक को 'तथाह च' लिखकर मूल में सम्मिलित कर लिया है, और 1 इस गलतफहमी को दूर करने के लिये, अनेकान्त, वर्ष 1, पृ. 67 पर मुद्रित 'स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द' शीर्षक निबन्ध देखना चाहिये। 2 पृ. 2.3 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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