SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 न्यायकुमुदचन्द्र विशेषावश्यकभाष्य में एक स्थल पर 'केइ दिहालोयणपुव्वमोग्गहं वेति' इत्यादि लिखकर एक मत की आलोचना की है जो आलोचनज्ञानपूर्वक वस्तु का ग्रहण होना स्वीकार करता है। जैनशास्त्रों में दर्शनपूर्वक अवग्रह की चर्चा तो हमारे देखने में आई है किन्तु आलोचनज्ञानपूर्वक अवग्रह की चर्चा हमारे दृष्टिपथ से नही गुजरी। इसकी टीका में टीकाकार हेमचन्द्र मलधारिदेव ने क्षमाश्रमणजी द्वारा निरूपित मत का निर्देश करने के लिये 'अस्ति ह्यालोचनज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् ' आदि, कुमारिल के श्लोकवार्तिक की कारिका उद्धृत की है। इस पर से ऐसा प्रतीत होता है कि टीकाकार उक्त मत को कुमारिल का मत समझते थे। यदि उन्हें किसी जैनाचार्य के उक्तमत का पता होता तो वे उसके समर्थन में कुमारिल की कारिका उद्धत न करते / इस पर से ऐसा लगता है कि क्षमाश्रमणजी संभवतः कुमारिल के लघुसमकालीन थे। यदि हमारी कल्पना सत्य हो तो उन्हें अकलंक का भी समकालीन मानना ही होगा। ऐसी परिस्थिति में यह निर्णय कर सकना शक्य नहीं है कि अमुक ने अमुक का अनुसरण किया है। समकालीन होने के कारण, यह भी संभव हो सकता है कि किसी स्रोत से दोनों ने एकसी विचारधारा ली हो और वह परस्पर में मेल खागई हो ? उदाहरण के लिये सिद्धसेन दिवाकर को ही ले लीजिये। दिवाकर जी के सन्मतितर्क का दोनों ने ही मनन किया है और उसके षड्नयवाद के दृष्टिकोण को दोनों ने ही अपनाया है। परन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन के अभेदवाद के सिद्धान्त को दोनों ने ही नहीं अपनाया / अन्तर केवल इतना ही है कि आगमिक होने के कारण क्षमाश्रमणजी सिद्धसेन की आगमविरुद्ध मान्यता का विरोध करने से अपने को न रोक सके, किन्तु तार्किक अकलंक ने अपने पूर्वज तार्किकबन्धु के विरोध में एक भी शब्द नहीं लिखा। हरिभद्र और अकलङ्क-हरिभद्र सूरि के दार्शनिक प्रकरणों पर अकलङ्क का प्रभाव प्रतीत होता है। उनकी अनेकान्तजयपताका और अकलङ्क के राजवार्तिक के कई स्थल परस्पर में मेल खाते हैं / बौद्धों के प्रत्यक्षं के लक्षण 'कल्पनापोढ़' के निराकरण की शैली और भाव में राजवार्तिक में विहित निराकरण की स्पष्ट झलक है / तथा, अकलङ्क की अष्टशंती का भी अनुसरण उसमें पाया जाता है। एक स्थल पर तो 'इति अकलङ्कन्यायानुसारि चेतोहरं वचः' लिखकर अकलङ्कन्याय का स्पष्टतया उल्लेख किया है। सिद्धसेनगणि और अकलंक-सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थभाष्य की अपनी टीका में अकलंकदेव के सिद्धविनिश्चय का तो उल्लेख किया ही है, किन्तु उनके राजवार्तिक के कई दार्शनिक मन्तव्यों को भी स्थान दिया है। इसके लिये गणिजी की टोका का पाँचवां अध्याय देखना चाहिए / सूत्र 5-24 की व्याख्या में अकलंकदेव ने प्रतिबिम्ब का विचार किया है, गणिजी ने भी उसी स्थल पर उसकी चर्चा की है। राजवार्तिक में 'लौकान्तिकानाम्' (4-42 ) इत्यादि सूत्र को व्याख्या में सप्तभंगी का वर्णन करते हुए काल, आत्मा आदि की जो चर्चा की है, गणिजी ने भी 5-31 की व्याख्या में उसे थोड़े से शाब्दिक परिवर्तन के साथ सम्मिलित कर लिया है। तथा 4-42 सूत्र की ही व्याख्या के अन्त में अकलंकदेव ने विकलादेश में सप्तभंगी का प्रतिपादन करते हुए जो प्रचित और अप्रचित तथा अर्थनय और शब्दनय का उल्लेख 1 अनेकान्तजय० पृ. 202 और राजवा० पृ. 39 / 2 अष्टसहस्री पृ० 119 और अने. ज. प. पृ. 122 / 3 अने. ज. प. पू. 253 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy