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________________ प्रस्तावना करते हुए नययोजना की है, 5-31 की व्याख्या में गणिजी ने वह सब सम्मिलित कर ली है। अतः गणिजी ने भी अकलंक के दार्शनिक रूप का अनुसरण किया है। विद्यानन्द और अकलंक-अकलंक के अन्यतम टोकाकार स्वामी विद्यानन्द पर अकलंक का इतना अधिक प्रभाव है कि कुछ विद्वान उन्हें उनका साक्षात् शिष्य समझते हैं। ऐतिहासिक खोज से विद्यानन्द अकलंक के साक्षात शिष्य तो प्रमाणित नहीं होते किन्तु उनके ग्रन्थों के अवलोकन करने से पाठक की यह धारणा अवश्य हो जाती है कि विद्यानन्द ने अकलंक को अपना आदर्श बनाया है, तथा उन्हीं के निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर अपनी प्राञ्जलबुद्धि की सहायता से अकलङ्कन्याय को खूब पल्लवित और पुष्पित किया है। अकलंक के अस्त के बाद, दार्शनिक क्षेत्र में जो विचारधाराएँ तथा मौलिक तत्त्व आविर्भूत हुए, उनका समीकरण और परिमार्जन विद्यानन्द ने किया है / उनकी अष्टसहस्री तो अकलंक की अष्टशती का ही विशद विवेचन है। उनकी प्रमाणपरीक्षा अकलंक के प्रमाणविषयक प्रकरणों के आधार पर रची गई है। उसमें प्रतिपादित सम्यकज्ञान के प्रमाणत्व की व्यवस्था, प्रमाण के प्रत्यक्ष, परोक्ष भेद प्रत्यक्ष के इन्द्रिय, अनिन्द्रिय और अतीन्द्रिय भेद, परोक्ष प्रमाणों की चर्चा, प्रमाण का विषय, फल आदि सभी बातें अकलंक के लघीयस्त्रय और न्यायविनिश्चय से सम्बद्ध हैं। केवल इतना अन्तर है कि विद्यानन्द ने अतीन्द्रियप्रत्यक्ष के विकल और सकल भेद करके अवधि और मनःपर्यय ज्ञानों को भी गर्भित कर लिया है। अकलंकदेव ने अपने प्रमाणसंग्रह में हेतु के बहुत से भेद किये हैं। विद्यानन्द ने प्रमाणपरीक्षा में भी विधिसाधक और प्रतिषेधसाधक हेतुओं के भेद बहुत ही सुन्दर रीति से क्रमवार दर्शाये हैं और अन्त में कुछ संग्रहश्लोक प्रमाणरूप से उद्धृत किये हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि हेतु के भेद-प्रभेदों का आधार संभवतः अकलङ्क का प्रमाणसंग्रह न होकर उक्त संग्रहश्लोक हैं। .. विद्यानन्द का तीसरा महत्त्वशाली ग्रन्थ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक भी अकलंक को मुद्रा से अङ्कित है। न्यायविनिश्चय की अनेक कारिकाएँ उसके मूल भाग को सुशोभित करती हैं। अकलंक के कई मन्तव्यों की उसमें आलोचना भी की गई है। अकलंक के दो महत्त्वपूर्ण मन्तव्यों-शब्दयोजनासहित ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं और शब्दयोजना से पहले मति स्मृति आदि ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है-की विवेचना और उनका स्पष्टीकरण विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक में ही दृष्टिगोचर होता है। चतुरंगवाद, जय-पराजयव्यवस्था तथा जाति आदि का निरूपण भी 'अकलंकोक्तलक्षणा' 'अकलंककथितो जयः' 'ज्ञेयमकलंकावबोधने' आदि लिखकर अकलङ्क के द्वारा निर्णीत दिशा के आधार पर ही किया गया है। ___ माणिक्यनन्दि और अकलंक-आचार्य माणिक्यनन्दि का 'परीक्षामुख' नाम से एक सूत्रप्रन्थ उपलब्ध है। कहा जाता है कि अकलंक के वचनसमुद्र का मथन करके उन्होंने इस न्याय-अमृत का उद्धार किया था। इस सूत्रग्रन्थ में 6 उद्देश हैं-प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष, विषय, फल और तदाभास / माणिक्यनन्दि से पहले प्रमाण का लक्षण 'स्वपरव्यवसायि ज्ञान' था, किन्तु उन्होंने उसमें 'अपूर्व' पद की वृद्धि करके स्वापूर्वार्थव्यवसायि ज्ञान को प्रमाण निर्धारित किया / कुछ ग्रन्थों में मीमांसक के नाम से निम्नलिखित कारिका उद्धृत पाई जाती है 1 पृ. 239 / 2 'अकलंकवचोम्भोधेरुदध्र येन धीमता / न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने // " प्रमेयरममाला।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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