________________ न्यायकुमुदचन्द्र " तत्रा पूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवार्जतम् / ___ अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् // " / इसमें अपूर्वार्थ के ज्ञान को प्रमाण माना है / प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिलभट्ट की श्लोकवार्तिक में उक्त कारिका नहीं मिलती, अतः यह अनुमान किया जाता है कि यह कारिका कुमारिल के किसी वृहट्टीका नामक ग्रंथ की है। अकलंकदेव ने भी प्रमाण को 'अनधिगतार्थग्राही' लिखा है अतः परीक्षामुखकार ने प्रमाण के लक्षण में 'अपूर्व' पद का समावेश करते समय अकलंक के शब्दों का भी ध्यान रखा है ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंने अपूर्व की परिभाषा 'अनिश्चित' की है। . माणिक्यनन्दि ने अपने सूत्रग्रन्थ को केवल न्यायशास्त्र की दृष्टि से ही संकलित किया है। अतः उसमें आगमिक परम्परा से सम्बन्ध रखनेवाले अवग्रहादि ज्ञानों का समावेश नहीं किया और आगमिक श्रुतप्रमाण को आगम नाम देकर-जैसा कि अकलङ्क ने अपने न्यायविनिश्चय में किया है-परोक्ष प्रमाण के भेदों में गिना दिया है। साध्य और साधन के लक्षण आदि भी अकलकोक्त ही दिये गये है। विद्यानन्द और माणिक्यनन्दि दोनों अकलङ्क के अनुयायी हैं, अतः दोनों के ग्रन्थों में साम्य होना अनिवार्य है। माणिक्यनन्दि ने अनुमान का लक्षण 'साधनात साध्यविज्ञानमनमानम' किया है। विद्यानन्द की प्रमाणपरीक्षा में भी यही लक्षण पाया जाता है। तथा श्लोकवार्तिक पृ० 197 पर 'साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः' लिखा है। इस पर से डाक्टर पाठक लिखते हैं-"माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र के बीच में विद्यानन्द को रखना होगा, क्योंकि विद्यानन्द ने अष्टसहस्री पृ० 197 में 'साधनात साध्यविज्ञानमनुमानं विदुः' करके परीक्षामुख के सूत्र 3-14 का उल्लेख किया है।" अकलङ्क के न्यायविनिश्चय को न देख सकने के कारण ही डाक्टर पाठक को यह भी भ्रम हुआ है / श्लोकवार्निक में ( अष्टसहस्री में लिखना गलत है, अष्टसहस्री के उक्त पेज पर उक्त वाक्य नहीं है) उक्त कारिका अकलङ्क के न्यायविनिश्चय से ली गई है। माणिक्यनन्दि ने भी उसी के शब्दों को ज्यों का त्यों लेकर अनुमान की परिभाषा बनाई है। इन दोनों प्रन्थकारों का पौर्वापर्य निर्णीत कर सकने की सामग्री अभी उपलब्ध नहीं हो सकी है। अकलङ्कन्याय के आधार पर परीक्षामुख का निर्माण किया गया, इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं, किन्तु उसके निर्माण में दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के सूत्रग्रन्थों से भी पर्याप्त सहायता ली गई है। तुलना के लिये कुछ सूत्र नीचे दिये जाते हैंन्यायप्रवेश / परीक्षामुख 1 शुचि नरशिरःकपालं प्राण्यङ्गत्वात् शंख- 1 शुचि नरशिरःकपालं प्राण्यङ्गत्वात् शंखशुक्तिवत् / शुक्तिवत् / 2 माता मे वन्ध्या 2 माता मे वन्ध्या पुरुषसंयोगेऽपि अगर्भत्वात 1. प्रसिद्धवन्ध्यावत् / 3 वाष्पादिभावेन संदिह्यमानो भूतसंघातोऽग्नि-३ अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुद्धिं प्रति अमिरत्र सिद्धावुपदिश्यमानः संदिग्धासिद्धः। धूमात्। तस्य वाष्पादिभावेन भूतसंघाते संदेहात्। 4 तत्र पक्षः प्रसिद्धो धर्मी 4 पक्ष इति यावत् / प्रसिद्धो धर्मी। 1 "प्रमाणमविसंवादिज्ञानम् अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् / " अष्टश. अष्टस० पृ० 175 2 देखो, 'अकलङ्कका समय ' शीर्षक लेख, भण्डारकर प्राच्य विद्यामन्दिर की पत्रिका, जिल्द 13 पृ.१५७ /