________________ प्रस्तावना न्यायबिन्दु परीक्षामुख 1 अनुमानं द्विधा / 1 तदनुमान द्वेधा। 2 स्वार्थ परार्थ च / 2 स्वार्थ-परार्थभेदात् / 3 नेहाप्रतिबद्धसामानि धूमकारणानि सन्ति, धूमाभावात् / 3 नेहाप्रतिबद्धसामोऽमिः, धूमानुपलब्धेः / 4 नात्र शिंशपा, वृक्षाभावात् / 4 नास्त्यत्र शिंशपा, वृक्षानुपलब्धेः / 5 नास्त्यत्र शोतस्पर्शः, धूमात् / | 5 नास्त्यत्र शीतस्पर्शः, धूमात् / ___ वार्तिककार और अकलंक-श्वेताम्बरसम्प्रदाय में जैनेतर्कवार्तिक के नाम से एक वार्तिकग्रन्थ पाया जाता है। उस पर शान्तिसरि की वृत्ति है। पहली कारिका में ग्रन्थकार ने 'सिद्धसेनार्कसूत्रितम् ' पद के द्वारा सिद्धसेनदिवाकर के सूत्र संभवतः न्यायावतार का निर्देश किया है, क्योंकि वार्तिक की दूसरी कारिका न्यायावतार की ही प्रथम कारिका है। प्रन्थकार के प्रतिज्ञावाक्य के अनुसार उसके आधार पर ही इस ग्रन्थ की रचना की गई है। किन्तु ग्रन्थ का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यद्यपि न्यायावतार के आधार पर ग्रन्थ का प्रारम्भ किया गया है किन्तु अकलङ्क के प्रकरणों का उस पर काफी प्रभाव है। तथा ग्रन्थकार ने उनकै मत की आलोचना भी की है। नीचे के उद्धरणां से वार्तिकों पर अकलङ्क का , प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है "सादृश्यं चेत् प्रमेयं स्यात् वैलक्षण्यं न किं तथा" यह वार्तिक लघीयत्रय के " उपमान प्रसिद्धार्थसाधात् साध्यसाधनम् / तद्वैधात् प्रमाणं किं स्यात् संक्षिप्रतिपादनम् // " वार्तिक का आशय लेकर ही बनाई गई है। न्याय विनिश्चय में प्रत्यक्ष का विषय बतलाते हुए लिखा है "द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् / " इसी को लेकर वार्तिककार लिखते हैं "द्रव्यपर्यायसामान्याविशेषास्तस्य गोचराः।" अकलङ्क ने लिखा है- . " भेदज्ञानात् प्रतीयन्ते प्रादुर्भावात्ययौ यदि / अभेदज्ञानतः सिद्धा स्थितिरंशेन केनचितं // " न्या०वि० वार्तिककार लिखते हैं "भेदज्ञानात्प्रतीयन्ते यथा भेदाःपरिस्फुटम् / तथैवाभेदविज्ञानादभेदस्य व्यवस्थितिः // " सिद्धिविनिश्चय में अकलङ्क लिखते हैं "असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः / द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने // " 1 किन्हीं का मत है कि वार्तिक भी वृत्तिकार को ही बनाई हुई हैं। किन्तु बड़ौदा से प्रकाशित पाटन के कैटलॉग में वार्तिक के आगे की का नाम नहीं दिया है। 11