SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायकुमुदचन्द्र इसमें देवनन्दि के स्थान पर श्वेताम्बराचार्य मल्लवादि का नाम बदल कर वार्तिककार ने इस कारिका को ज्यों का त्यों अपना लिया है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वार्तिक की रचना में अकलङ्क के प्रकरणों से बहुत कुछ लिया गया है। प्रमाणसंग्रह में प्रमाणों की चर्चा प्रारम्भ करते हुए अफलंक ने लिखा है " प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा श्रुतमविप्लुतम् __ परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाण इति संग्रहः।" "प्रत्यक्षं विशदज्ञानम्-तत्त्वज्ञानं विशदम् , इन्द्रियप्रत्यक्षम् , अनिन्द्रियप्रत्यक्षम् , अतीन्द्रियप्रत्यक्षम् , त्रिधा श्रुतमविप्लवं प्रत्यक्षानुमानागमनिमित्तम् / परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि-स्मरणपूर्वकं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थम, द्वे एव प्रमाणे इति शास्त्रार्थस्य संग्रहःप्रतिभासभेदेन सामप्रीविशेषोपपत्तेः।" वार्तिककार लिखते हैं "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधन्द्रियमानीन्द्रयम् / योगजं चेति वैशद्यमिदन्त्वेनावभासनम् // " वार्तिककार ने अकलङ्क के अनुसार विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष बतलाकर उसके तीन भेद किये हैं-इन्द्रिय, अनिन्द्रिय और योगज ( अतीन्द्रिय ) / इस कारिका की वृत्ति में वैशद्य का विवेचन करते हुए शान्तिसूरि ने अकलङ्क का खण्डन किया है। प्रमाणसंग्रह की उक्त कारिका के मध्य में स्थित त्रिधा शब्द की अनुवृत्ति प्रत्यक्ष में भी होती है और श्रुत में भी। अतः प्रत्यक्ष की तरह श्रुत के भी तीन भेद अकलङ्क ने माने हैं-प्रत्यक्षनिमित्तक, अनुमाननिमित्तक और आगमनिमित्तक / शान्तिसूरि ने उनकी भी आलोचना की है। क्यों कि वार्तिककार ने परोक्ष के दो ही भेद किये हैं-एक लिङ्गजन्य और दूसरा शब्दजन्य / तथा"लैङ्गिक प्रत्यभिज्ञादि भिन्नमन्ये प्रचक्षते / " लिखकर अकलंक के मत का उल्लेख किया है। इसकी वृत्ति में 'अन्ये' पद का अर्थ 'समानतंत्राः' किया है; और प्रमाणसंग्रह की कारिका के दो चरण “परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि, त्रिधा श्रुतमविप्लवम् / " उद्धृत किये हैं। आगे की कारिका में परोपदेशजन्य ज्ञान को श्रत और शेष को मति, तथा प्रत्यभिज्ञादि को परोक्ष लिखकर श्रुत के तीन भेदों को वार्तिककार ने भी अयुक्त बतलाया है। इस प्रकार इस वार्तिक ग्रन्थ की रचना अकलङ्क के प्रकरणों के आधार पर ही हुई है और वार्तिककार श्रुत के तीन भेदों के सिवा अफलंक के द्वारा निर्धारित की गई शेष व्यवस्था के समर्थक और अनुसर्ता हैं। वादिराज और अकलंक–यों तो वादिराज ने अकलंक के न्यायविनिश्चय पर विस्तृत व्याख्यानग्रन्थ लिखा है, किन्तु 'प्रमाणनिर्णय' नाम से उनका एक स्वतंत्र प्रकरण भी है। इस ग्रन्थ के प्रत्येक परिच्छेद के अन्तिम श्लोक में स्पष्ट लिखा है कि 'देव' के मत का संक्षिप्त दिग्दर्शन इसमें कराया गया है। इस ग्रन्थ में परोक्ष के दो भेद किये हैं-एक अनुमान और दूसरा आगम, तथा अनुमान के गौण और मुख्य भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को गौण अनुमान स्वीकार किया है। अनुमान के भेदों की यह परम्परा बिल्कुल नूतन प्रतीत होती है और अन्य किसी ग्रन्थ में इसका इतना स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता। किन्तु यह स्वयं वादि. १"परोपदेशजं श्रौतं मतिः शेष जगुर्जिनाः / परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि त्रिधा श्रौतं न युक्तिमत् / " पृ० 132 / 2 पृ.३३॥
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy