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________________ प्रस्तावना राज की कल्पना नहीं है, अकलङ्क के न्यायविनिश्चय के आधार पर ही इसकी सृष्टि की गई है। हम लिख आये हैं कि न्यायविनिश्चय में केवल तीन ही प्रस्ताव हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम / अनुमानप्रस्ताव में ही उसके अंगरूप से स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का वर्णन किया गया है / वादिराज ने भी उन्हें अनुमान बतलाते हुए लिखा है कि उत्तरोत्तर कारण होते हुए अनुमान के निमित्त होने से ये तीनों अनुमान कहे जाते हैं। ___ अभयदेव और अकलङ्क-सन्मतितर्क के टीकाकार अभयदेवसूरि ने भी अकलङ्क को अपनाया है। प्रत्यक्ष के भेद अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा को बतलाकर लघीयत्रय के 'पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं फलं स्यादुत्तरोत्तरम्' का अनुसरण करते हुए पूर्व पूर्व ज्ञानों को प्रमाण और उत्तर उत्तर ज्ञानों को उनका फल बतलाया है। तथा 'शब्दयोजनानिरपेक्ष ज्ञान को मति और शब्दयोजनासापेक्ष को श्रुत कहते हैं' अकलङ्क के इस मत के किसी अनुयायी के शब्दों का उल्लेख करके अकलङ्क के प्रसिद्ध मत का निर्देश किया है। अन्त में जयपराजय की व्यवस्था भी अकलङ्कोक्तदिशा के आधार पर ही की गई है। हेमचन्द्र और अकलङ्क-प्रमाणमीमांसा नामक सूत्रप्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए हेमचन्द्रने किसी के द्वारा उपपत्ति कराते हुए लिखा है कि अकलङ्क धर्मकीर्ति आदि की तरह प्रकरणग्रन्थ क्यों नहीं रचते हो ? इत्यादि। प्रमाणमीमांसा में प्रत्यक्ष का लक्षण, उसके भेद, अवग्रहादि ज्ञानों में प्रमाणफलव्यवस्था, अनुमान का लक्षण आदि अनेक बातें अकलंकन्याय के अनुसार दर्शाई गई हैं। प्रत्यभिज्ञान के प्रकरण में लघीयत्रय को दो कारिकाएँ भी उद्धत की गई हैं तथा अन्त में जय पराजयव्यवस्था भी अकलं कोक्तदिशा के आधार पर हो निर्वारित की है / वादिदेव और अकलङ्क-अकलङ्क के अनुयायी माणिक्य नन्दि के परीक्षामुख सूत्र के ही आधार पर वादिदेवसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार नामक सूत्रप्रन्थ की रचना की है और स्याद्वादरत्नाकर के नाम से उस पर एक वृहद् टीकाग्रन्थ लिखा है। इस टीकाग्रन्थ में प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप और भेद बतलाते हुए लघीयत्रय से दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं। तथा 'यदाह अकलङ्कः सिद्धिविनिश्चये' करके सिद्धिविनिश्चय से एक पंक्ति उद्धृत की है। तथा अन्त में जय पराजय की व्यवस्था करते हुए प्रमाणरूप से अकलङ्क के कुछ शब्द उद्धृत किये हैं, जो संभवतः उनके किसी वृत्तिग्रन्थ के हो सकते हैं। इसी प्रकरण में 'अकलङ्कोऽप्यभ्यधात' लिखकर निम्नलिखित कारिका उद्धृत की है “विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः / आभासान्तरमुद्भाव्य पक्षसिद्धि मपेक्षते // " ___ यह कारिका या इसका पूर्वार्द्ध तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, न्यायविनिश्चयविवरण, सन्मतितर्कटीका तथा प्रमाणमीमांसा में भी उद्धृत है। किन्तु अकलङ्क के उपलब्ध साहित्य में अभी इस कारिका का पता नहीं लग सका है। संभव है यह कारिका सिद्धिविनिश्चय की हो। इस प्रकार वादिदेवसूरि ने भी अकलङ्क का अनुसरण करके अकलङ्कन्याय को समृद्ध किया है। 1 सन्मति० टी०, पृ० 553 / 2 का० 19, 21 / 3 प्र० मी० पृ० 53 / 4 का० 19, 21 / 5 पृ. 498 / 6 पृ. 641 / 7 पृ. 1137 / 8 पृ. 1141 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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