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________________ न्यायकुमुदचन्द्र विमलदास और अकलङ्क-विमलदास नाम के एक प्रन्यकार ने सप्तभंगीतरंगिणी नामक एक सुन्दर प्रबन्ध लिखा है। इस प्रबन्ध की रचना भी अधिकतर अकलङ्कदेव के राजवार्तिक नामक प्रन्थ में प्रतिपादित सप्तभंगी का आश्रय लेकर ही की गई है। सप्तभंगी का लक्षण, काल, आत्मा आदि की अपेक्षा से भेदाभेद, स्व और पर का विभाजन, अनेकान्त में छल, संशय आदि दोषों का निराकरण आदि बातें राजवार्तिक से ली गई हैं। लघीयत्रय से थोड़े से परिवर्तन के साथ एक कारिका भी उद्धृतं की है। धर्मभूषण और अकलङ्क-धर्मभूषण की न्यायदीपिका भी अकलङ्कन्याय का ही प्रदीपन करती है। 'तदाहुर्तिककारपादाः,' 'तदुक्तं भगवद्भिरकलङ्क देवैः न्यायविनिश्चये,' 'यद्राजवार्तिकम्' आदि लिखकर स्थान स्थान पर अकलङ्क के प्रकरणों से प्रमाण उद्धृत किये हैं। ... __ यशोविजय और अकलङ्क-उपाध्याय यशोविजय जी ने भी अपनी अगाध विद्वत्ता से अकलङ्कन्याय को खूब समृद्ध बनाया है। उनके प्रकरणों पर अकलङ्क का काफी प्रभाव है। नयरहस्य में उन्होंने नय के अकलङ्कोक्तलक्षण 'नयो ज्ञातुरभिप्रायः' का उल्लेख किया है। तथा जैनतर्कभाषा में प्रमाणों का विवेचन अकलङ्क के द्वारा स्थापित की गई शैली के अनुसार ही किया है / वैशद्य की परिभाषा भी अकलङ्कोक्त ही ली गई है। निक्षेपों का विवेचन करते हुए लघीयत्रय की विवृति से एक वाक्य भी उद्धृत किया है। अकलङ्क और जैनेतर ग्रन्थकार पतञ्जलि और अकलङ्क-तत्त्वार्थराजवार्तिक के अध्ययन से प्रतीत होता है कि महाभाष्यकार पतञ्जलि की शैली भी अकलङ्क को प्रिय थी। उन्होंने अपने राजवार्तिक में पतजलि के मत की आलोचना करके उसमें अनेकान्त को घटित किया है। साथ ही साथ स्थान स्थान पर महाभाष्य से अनेक उदाहरण और पङ्क्तियां भी ली हैं। यथा "न चान्यार्थ प्रकृतमन्यार्थ भवतीति / अन्यार्थमपि प्रकृतमन्यार्थ भवति / तद्यथा-शाल्यर्थ कुल्याः प्रणीयन्ते, ताभ्यश्च पानीयं पीयते उपस्पृश्यतेच, शालयश्च भाव्यन्ते"। महाभा०पृ० 280 "तद्यथा-कतरद् देवदत्तस्य गृहम् ? अदो यत्रासौ काका, इति उत्पतिते काके नष्ट तद् ग्रहं भवति / " महा० पृ० 286 / वसुबन्धु और अकलंक-बौद्धाचार्य वसुबन्धु का प्रभाव तो अकलंक के प्रकरणों पर प्रतीत नहीं होता / इसका कारण है / अकलंक के पूर्वज दिङ्नाग और समकालीन धर्मकीर्ति ने न्यायशास्त्र का बहुत विकास किया था और उनके समय में उसी विकसित रूप का राज्य था। अतः इन दोनों आचार्यों की रचनाओं ने ही अकलंक को विशेषतया प्रभावित किया है। फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि वसुबन्धु के ग्रन्थों को उन्होंने देखा था। एक दो स्थल पर वसबन्धु के अभिधर्मकोश से उन्होंने प्रमाण उद्धृत किये हैं। . 1 सप्तभंगी० पृ० 31 / 2 देखो 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवतीति लोके। वार्तिक का व्याख्यान-राज. पृ. 23 / और 'इतरथा ह्यसंप्रत्ययोऽकृत्रिमत्वाद्यथालोके', का व्याख्यान-महाभाष्य पृ० 275.27 / 3 राजवा० पृ० 39, 221 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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