________________ प्रस्तावना दिङ्नाग और अकलंक-दिङ्नाग का साहित्य अभी प्रकाश में नहीं आया है, इसलिये उनका अकलंक के प्रकरणों पर कैसा और कितना प्रभाव है, इसका स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता। किन्तु तत्कालीन परिस्थिति को हृदयङ्गम करते हुए यह संभव प्रतीत नहीं होता कि बौद्धदर्शन के प्रतिष्ठाता महामति दिङ्नाग के प्रभाव से अकलंक का व्यक्तित्व अछूता रहा होगा। दिङ्नाग के प्रमुख ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय से उन्होंने एक कारिका उद्धृत की है और लघीयस्त्रय की विवृति में 'अपरे' करके एक मत का उल्लेख किया है जिसे प्रभाचन्द्र दिङ्नाग का मत बतलाते हैं। धर्मकीर्ति और अकलंक-इतर दार्शनिकों में से जिसने अकलंक को सब से अधिक प्रभावित किया वह उनका समकालीन बौद्धनैयायिक धर्मकीर्ति था। अकलंक ने धर्मकीर्ति के प्रायः सभी ग्रन्थों का आलोडन किया था और उनकी शैली के आधार पर अपने प्रकरणों की रचना की थी। धर्मकीर्ति के प्रकरणों में प्रमाणवार्तिक और प्रमाणविनिश्चय बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रमाणवार्तिक तो अभी अभी प्रकाश में आया है किन्तु प्रमाणविनिश्चय के दर्शन का अवसर अभी नहीं आया / मालूम हुआ है कि प्रमाणविनिश्चय की रचना गद्य पद्यात्मक है तथा उसका बहुभाग प्रमाणवार्तिक से लिया गया है / धर्मकीर्ति के इन प्रकरणों के प्रकाश में अकलंक के प्रकरणों का अवलोकन करने पर हम देखते हैं कि अकलंक का प्रमाणसंग्रह भी गद्यपद्यास्मक है तथा उसकी बहुत सी कारिकाएँ न्यायविनिश्चय से ली गई हैं। 'न्यायविनिश्चय' नाम सुनकर धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय का स्मरण हो आता है। प्रमाणविनिश्चय में तीन परिच्छेद हैं-प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और परार्थानुमान / न्यायविनिश्चय में भी तीन ही परिच्छेद हैंप्रत्यक्ष, अनुमान और आगम / प्रमाणवार्तिक के देखने से प्रतीत होता है कि धर्मकीर्ति ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलगान करने के बाद शास्त्र का प्रयोजन बतलाने के लिये एक पद्य देते हैं। अकलंक के लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय और सिद्धिविनिश्चय में भी हम ऐसा ही देखते हैं / न्यायविनिश्चय के परिचय में हम लिख आये हैं कि न्यायविनिश्चय की कुछ कारिकाओं को टीकाकार संग्रहश्लोक और कुछ को अन्तरश्लोक बतलाता है। मुद्रित प्रमाणवार्तिक में भी हम ऐसा ही पाते हैं / न्यायविनिश्चय के टीकाकार की परिभाषा के अनुसार अन्तरश्लोक वृत्ति के मध्यगत होते हैं और संग्रहश्लोकों में वृत्ति में वर्णित मुख्य मुख्य बातों का संग्रह रहता है। तब क्या धर्मकीर्ति ने पूरी प्रमाणवार्तिक पर वृत्ति रची थी ? अभी तक तो यही सुना जाता है कि उन्होंने केवल पहले ही परिच्छेद की वृत्ति बनाई थी और शेष तीन परिच्छेद अपने शिष्य देवेन्द्रबुद्धि को सौंप दिये थे। धर्मकीर्ति और अकलंक की शैली की इस संक्षिप्त तुलना से पाठक अकलंक पर धर्मकीर्ति के बाहिरी प्रभाव का अनुमान कर सकते हैं। अब आभ्यन्तर प्रभाव को बतलाने का प्रयास करते हैं। नीचे कुछ कारिकाएँ दी जाती हैं जो धर्मकीर्ति के मत के आलोचनार्थ रची गई हैं। धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में, अनेकान्त के खण्डन में कुछ कारिकाएँ लिखी हैं। न्यायविनिश्चय में अकलंक ने उन सब का ही मखोल उड़ाया है। धर्मकीर्ति लिखते हैं 1 राजवा० पृ० 38 / 2 न्यायकु० च० पृ० 66 / 3 बुद्धिस्ट लॉजिक ( चिरविट्स्की )