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________________ न्यायकुमुदचन्द्र में अनेकान्तवाद के फलितवाद नयवाद और सप्तभंगीवाद का भी निरूपण मिलता है। फिर भी उनकी शैली हेतुवाद के कुछ मन्तव्यों पर प्रकाश डालती है और उत्तरकालीन ग्रन्थकारों ने उसके आधार पर कई एक रहस्यों का उद्घाटन करके उन्हें जैनन्याय में स्थान दिया है / समन्तभद्र ने जैनन्याय को जो कुछ दिया, संक्षेप में उसकी विगत निम्न प्रकार है 1 जैनवाङ्मय के जीवन अनेकान्तवाद और सप्तभंगीवाद की रूपरेखा स्थिर करके दर्शनशास्त्र की प्रत्येकदिशा में उसका व्यावहारिक उपयोग करने की प्रणाली को प्रचलित किया। 2 प्रमाण का दार्शनिक लक्षण और फल बतलाया / 3 स्याद्वाद की परिभाषा स्थिर की। 4 श्रुतप्रमाण को स्याद्वाद और उसके विशकलित अंशों को नय बतलाया। 5 सुनय और दुर्नय की व्यवस्था की / 2 अनेकान्त में अनेकान्त की योजना करने की प्रक्रिया बतलाई / इस प्रकार स्वामी समन्तभद्र ने स्याद्वाद, सप्तभंगीवाद, प्रमाण और नय का स्पष्ट विवेचन करके जैनन्याय की नींव रक्खी। जैनसाहित्य में न्यायशब्द का सब से पहले प्रयोग भी इन्हीं के ग्रन्थों में देखा जाता है। स्वामी समन्तभद्र के पश्चात् जैन साहित्य के क्षितिज पर दूसरे नक्षत्र का उदय हुआ। यह नक्षत्र थे सिद्धसेन दिवाकर, जो न्याय के लिये तो सचमुच दिवाकर ही थे। इन्होंने सन्मतितर्क नामक प्रकरण में नयों का बहुत विशद और मौलिक विवेचन किया और कथन करने की प्रत्येक प्रक्रिया को नय बतलाकर विभिन्ननयों में विभिन्न दर्शनों का अतभाव करने की प्रक्रिया को जन्म दिया। इनके समय में बौद्ध दार्शनिकों में न्यायशास्त्र के विविध अंगों पर प्रकरण रचने की परम्परा प्रचलित हो चुकी थी। संभवतः न्यायशास्त्र विषयक उनके प्रकरणों को देखकर ही दिवाकरजी का ध्यान जैनसाहित्य की इस कमी को ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने न्यायावतार नामक प्रकरण को रचकर जैनसाहित्य में सर्वप्रथम न्याय का अवतार करने का श्रेय प्राप्त किया। इस छोटे से प्रकरण में दिवाकरजो ने प्रमाण की चर्चा की है। उन्होंने समन्तभद्रोक्त प्रमाण के लक्षण में 'वाधविवर्जित' पद को स्थान दिया और उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद करके दोनों की परिभाषा बतलाई। यद्यपि स्वामी समन्तभद्र ने सर्वज्ञ. सिद्धि में अनुमान का उपयोग किया था किन्तु अनुमान प्रमाण की परिभाषा और उसका स्वार्थ और परार्थ के भेद से विभाजन, जैनवाङ्मय में सबसे पहले न्यायावतार में ही मिलता है। और इसी लिये इसका 'न्यायावतार' नाम सार्थक है, क्योंकि न्यायशब्द का पारिभाषिक अर्थ परार्थानुमान ही किया गया है। परार्थानुमान के साथ ही साथ पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, दूषण और तदाभासों का संक्षिप्त विवेचन भी इस ग्रन्थ में किया गया है / इस प्रकार 1 देखो, आप्तमीमांसा / 2 "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् / " स्वयंभूस्तो० श्लोक 63 / 3 "उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः // 102 // " आ० मी० / 4 आ०मी० कारि० 104 / 5 आ० मी० कारि० 106 / 6 आ० मी० कारि० 108 / 7 स्वयंभूस्तो० श्लो. 103 / 8 तत्र नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थे न्यायः प्रवर्तते, किन्तर्हि ? संशयितेऽर्थे / न्या. भा. 1-1-1 दिङ्नाग ने परार्थानुमान के पाँच अवयवों को 'भ्यायावयव लिखा है। विद्याभूषण का 'इन्डियनलॉजिक' पृ.४२ /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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