________________ प्रस्तावना 63 श्री सिद्धसेन दिवाकर ने न्यायोपयोगी तत्त्वों का समावेश करके जैनसाहित्य में न्याय पर स्वतंत्र प्रकरण लिखने की पद्धति को जन्म दिया। ____ अकलङ्कदेव के पहले पात्रकेसरि श्रीदत्त आदि अन्य भी कई जैनाचार्य हुए हैं जिन्होंने त्रिलक्षणकदर्थन, जल्पनिर्णय आदि ग्रन्थों को रचकर जैन्य न्याय के अन्य अंगों का विकास किया था। किन्तु उनका साहित्य उपलब्ध न होने के कारण उनके सम्बन्ध में कुछ लिखना संभव नहीं है / अतः उपलब्ध साहित्य के आधार पर स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर ने जैनन्याय की दिशा में प्रशंसनीय उद्योग किया और उन्हीं के द्वारा किये गये शिलान्यास के आधार पर कुशल शिल्पी अकलंक ने जैनन्याय के भव्य प्रासाद का निर्माण किया / स्पष्टीकरण के लिये जैनन्याय के दो विभाग किये जा सकते हैं-एक विशेष और दूसरा सामान्य / विशेष विभाग का सम्बन्ध जैनन्याय के उन मन्तव्यों से है जो केवल जैनों की अनेकान्तदृष्टि से ही सम्बन्ध रखते हैं और इसलिये एकान्तवादी दर्शनों में उनके लिये कोई स्थान नहीं है। और सामान्य विभाग का सम्बन्ध न्यायशास्त्र के उन मन्तव्यों से है जिनके कारण ही न्याय न्याय कहा जाता है। प्रथम विभाग में स्याद्वाद, नयवाद और सप्तभंगीवाद का समावेश है और दूसरे में प्रमाणवाद, विशेषतया अनुमानप्रमाण और उसके परिकर हेतु हेत्वाभास आदि का / स्वामी समन्तभद्र ने प्रथम विभाग पर लेखनी चलाई और उसका ऐसा साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया कि बाद के लेखकों को उसके सम्बन्ध में विशेष लिखने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। इसका यह आशय नहीं है कि समन्तभद्र के बाद के ग्रन्थकारों ने स्याद्वाद और सप्तभंगीवाद के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा, उन्होंने लिखा और खूब लिखा, किन्तु उनके लेख से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि वे उक्त विषय में कुछ नूतन वृद्धि कर रहे हैं या उन्होंने किसी ऐसे नूतन सिद्धान्त का समावेश उसमें किया है जो समन्तभद्र के वर्णन में नहीं था। हाँ, ऐसे कुछ तत्त्व अवश्य मिलते हैं, जो समन्तभद्र के लेख में अव्यक्त थे और बाद के लेखकों ने उन्हें व्यक्त किया। जैसे प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी का अस्पष्टसा उल्लेख समन्तभद्र और सिद्धसेन के प्रकरणों में मिलता है, अकलंकदेव ने उसे स्पष्ट करके सप्तभंगी के दो विभाग कर दिये। सिद्धसेन दिवाकर ने न्याय के पहले विभाग के साथ ही साथ दूसरे विभाग पर भी लेखनी उठाई। और जैसा कि लिखा जा चुका है इस दिशा में उनका यह प्रथम ही प्रयास था। अकलंकदेव के समय में भारतीय न्यायशास्त्र में बहुत उन्नति हो चुकी थी, बौद्धदर्शन के पिता दिङ्नाग के अस्त के बाद धर्मकीर्ति का अभ्युत्थान हो रहा था, बौद्धदर्शन का मध्याह्नकाल था, शास्त्रार्थों की धूम थी, शास्त्रार्थों में उपयोग किये जानेवाले पराथोंनुमान, छल, जाति, निग्रहस्थान आदि अस्त्र-शस्त्रों के सञ्चालन में निपुण हुए बिना विजय पाना दुर्लभ था, तथा यदि शास्त्रार्थ के मध्य में उपेयतत्त्व पर वाद-विवाद होते-होते उपायतत्त्व पर भी वाद-विवाद होने लगे तो उस पर भी अपना शास्त्रीय अभिमत प्रकट करना आवश्यक था। ऐसी परिस्थिति न्याय के उत्तराधिकारी के रूप में अकलंकदेव को जो निधि मिली, वह उस समय के लिये पर्याप्त नहीं थी। विपक्षीदल ने अपनी विरासत को खूब समृद्ध बना लिया था, तथा कुछ ऐसे उपायों का भी आविष्कार किया गया था जिनसे न्याय की हत्या हो रही थी, अतः न्याय का 1 तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत् सर्वभासनम् / क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् // 101 // आप्तमीमांसा 2 नयानामेकनिष्टानां प्रवृत्तेः श्रुतवम॑नि / संपूर्णार्थविनिश्चायि स्याद्वादश्रुतमुच्यते // 30 // न्यायावतार .