________________ न्यायकुमुदचन्द्र बुद्धिमानी का रहस्य उद्घाटित कर देता है। तथा अकलङ्कदेव की प्रशंसापरक अन्तिम दो श्लोक उसके अकलङ्करचित होने की मान्यता का समूल उच्छेद कर देते हैं। किसी किसी का विचार है कि-"मल्लिषेणप्रशस्तिवाले पद्य को स्वयं अकलङ्क के द्वारा कहा गया मानने में कोई बाधा नहीं दीखती। शेष अन्तिम दो पद्यों को अकलङ्क के किसी शिष्य ने रचा होगा, और उनका स्तोत्र के अन्त में होना यही सिद्ध करता है कि स्तोत्र अकलङ्क का रचा हुआ है। कम से कम उस समय और उस व्यक्ति के निकट तो यह अवश्य ही उनकी रचना थी, जिस समय जिस व्यक्ति ने उक्त दो प्रशंसात्मक श्लोक स्तोत्र के अन्त में जोड़े थे।" आदि / अकलङ्कस्तोत्र के अन्तिम दो पद्य तो अवश्य ही अकलङ्क के किसी भक्तजन के बनाये हुए हैं। हां, मल्लिषेणप्रशस्ति वाले श्लोक के स्वयं अकलङ्करचित होने में इतिहासज्ञों को विवाद हो सकता है। मल्लिषेणप्रशस्ति में यह श्लोक 'राजन् साहसतुंग' आदि अन्य दो श्लोकों के बाद आता है और उससे ऐसा मालूम होता है कि साहसतुङ्ग राजा की सभा में अकलङ्क ने वे श्लोक कहे थे। . इतिहासप्रेमी पाठकों को स्मरण होगा कि स्वामी समन्तभद्र के बारे में भी इसी तरह के कुछ श्लोक सर्वविश्रुत हैं, जिनमें उनके दिग्विजय तथा किसी राजा की सभा में शास्त्रार्थ का चैलेज देने का वर्णन उनके मुख से कराया गया है। मल्लिषेणप्रशस्ति के अकलङ्कसम्बन्धी प्रारम्भिक दो श्लोक भी उन्हीं श्लोकों की छाया में बनाये जान पड़ते हैं। इसी से अकलङ्क के श्लोक का एक चरण "वक्तुं यस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् / " समन्तभद्र के श्लोक के एक चरण 'राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन निम्रन्थवादी' का बिल्कुल प्रतिरूप जान पड़ता है। तथा अकलङ्क का अपने मुख से राजासाहसतुंग की और अपनी प्रशंसा में उस तरह के शब्द निकालना भी संभव प्रतीत नहीं होता। अतः प्रशस्ति में संकलित आरम्भिक दो श्लोक तो बनावटी जान पड़ते है किन्तु हिमशीतलवाला श्लोक, जो अकलङ्कस्तोत्र में भी है, अकलङ्करचित हो सकता है क्यों कि उसमें वही कारुण्यभाव झलकता है जो न्यायविनिश्चय के द्वितीय पद्य में अङ्कित है। अतः पूर्वदर्शित विचारों के पूर्वार्ध से सहमत होने में हमें भी कोई बाधा नहीं दीखती किन्तु उस श्लोक के अस्तित्व से स्तोत्र का अकलङ्करचित होना प्रमाणित नहीं होता। क्योंकि स्तवन में उस श्लोक की स्थिति उतनी भी उपयुक्त नहीं है जितनी 1 किंवायो भगवानमेयमहिमा देवोऽकलङ्कः कलौ काले यो जनतासु धर्मनिहितो देवोऽकलको जिनः / यस्य स्फारविवेकमुद्रलहरीजालेऽप्रमेयाकुला निर्मग्ना तनुतेतरां भगवती तारा शिरःकम्पनम् // 15 // सा तारा खलु देवता भगवतीमन्यापि मन्यामहे षण्मासावधिजाड्यसंख्यभगवद्भट्टाकलङ्कप्रभोः / वाकल्लोलपरम्पराभिरमते नूनं मनोमजन व्यापार सहतेस्म विस्मितमतिः सन्ताडितेतस्ततः // 16 // 2 देखो, जै०सि० भास्कर, भाग 3, पृ० 155 / / 3 प्रशस्ति के तीनो श्लोक ‘शास्त्रार्थी अकलङ्क' नामक स्तम्भ में उद्धृत किये जा चुके हैं। - 4 यह श्लोक 'ग्रन्थकार अकलंक' शीर्षक में उद्धृत है।