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________________ प्रस्तावना कटे वस्त्र में पेबन्द ( थेगरा ) की होती है, वह तो वहां जबरन ठूसा गया जान पड़ता है, और इस कार्य को करने का सन्देह उन्हीं महात्मा पर किया जा सकता है जिन्होंने स्वरचित या पररचित प्रशंसापरक अन्तिम दो श्लोक जोड़े हैं। _____ अकलङ्कदेव को शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्दों में अपना अभिप्राय प्रकट करना विशेष प्रिय था, अकलङ्क के प्रकरणों के उद्देश्यनिर्देशक और उपसंहारात्मक पद्यों के देखने से ऐसा प्रतीत होता है। प्रकृत स्तोत्र भी उक्त दो छन्दों में ही रचा गया है। किन्तु उसका विषय अकलङ्क के व्यक्तित्व के बिल्कुल प्रतिकूल है, उसमें उनकी दार्शनिकता की छाया रंचमात्र भी नहीं है / समन्तभद्र, सिद्धसेन, विद्यानन्द आदि दार्शनिकों के स्तोत्रों में गहन तत्त्वचर्चा का निरूपण देखने में आता है, तब अकलङ्क जैसे वाग्मी की लेखनी से इस प्रकार की तात्त्विकचर्चा से शून्य और अक्रमबद्ध स्तवन की आशा कैसे की जा सकती है ? हम ऊपर लिख आये हैं कि अकलङ्कदेव अपने सभी प्रकरणों के अन्त में किसी न किसी रूप में अपना नाम देते हैं, किन्तु अकलङ्कस्तवन में किसी स्थल पर भी अकलङ्क नाम का निर्देश नहीं है। अतः अकलङ्कस्तवन को प्रसिद्ध अकलङ्करचित तो नहीं माना जा सकता। संभव है अकलङ्क नाम के किसी दूसरे विद्वान ने उसे रचा हो और हिमशीतलवाले श्लोक की उपस्थितिने उसे प्रसिद्ध अकलङ्कदेव रचित होने की जनश्रुति देदी हो / __ अकलङ्कप्रतिष्ठापाठ-पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपनी ग्रन्थपरीक्षा के तीसरे भाग में इस प्रतिष्ठापाठ की समीक्षा करके प्रमाणित किया है कि यह प्रतिष्ठापाठ प्रसिद्ध तार्किक भट्टाकलङ्कदेव की कृति नहीं है किन्तु उनके समाननामा किसी दूसरे पंडित की कृति है। क्यों कि उसमें आदिपुराण, ज्ञानार्णव, एकसंधिसंहिता, सागारधर्मामृत, आदि ग्रन्थों से बहुत से पद्य दिये गये हैं। उन्होंने इसका रचनाकाल वि० सं० 1501 और 1665 के मध्य में प्रमाणित किया है। अकलंकप्रायश्चित्त-यह ग्रन्थ इसी ग्रन्थमाला के १८वें ग्रन्थ में प्रकाशित हो चुका है। इसमें 29 श्लोक और अन्त में एक पद्य है। मंगलाचरण में 'जिनचन्द्र' के विशेषणरूप अकलङ्क पद आया है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है इसमें विभिन्न प्रकार के दुष्कर्मों का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। प्रायश्चित्त में अभिषेक का विधान बहुतायत से किया गया है। इससे यह ग्रन्थ भट्टारकयुग की रचना जान पड़ता है। मद्रास से प्रकाशित सूचीपत्र के अनुसार अकलंक नाम के विद्वानों की जो तालिका दी है उसमें भट्टारक अकलंक का उल्लेख है, जिन्हें श्रावकप्रायश्चित्त का रचयिता लिखा है। यह प्रायश्चित्त ग्रन्थ वि० सं० 1256 में रचा गया था। संभवतः यह श्रावकप्रायश्चित्त ही अकलंकप्रायश्चित्त है और भट्टारक अकलंक उसके रचयिता हैं। यदि हमारा अनुमान सत्य है तो इसे विक्रम की 13 वीं शताब्दी की रचना मानना होगा। प्रमाणरत्नदीप और जैनवर्णाश्रम नामक कन्नड़ ग्रन्थ भी अकलंक की कृतियाँ कही जाती हैं। ये दोनों ग्रन्थ भी अकलंक नाम के किसी अन्य ग्रन्थकार की रचना प्रतीत होते हैं / कन्नड़ प्रन्थ तो संभवतः शब्दानुशासन के रचयिता अकलंक ( 16 वीं शताब्दी) का होगा। मद्रास के 'सूचीपत्रों के सूचीपत्र' में 'वादसिन्धु' नामक ग्रन्थ को भी अकलंक की कृति लिखा है
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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