________________ प्रस्तावना 55 जुगलकिशोरजी ने मृडविदुरे के पडुबस्ती भण्डार की ग्रन्थसूची देखी थी, उसमें भी स्वरूपसम्बोधन को महासेन की रचना बतलाया है। तथा उसी सूची में महासेन के एक प्रमाणनिर्णय नामक ग्रन्थ का भी उल्लेख है। उक्त प्रतियों तथा उद्धरणों के आधार पर यह ग्रन्थ महासेन का सिद्ध होता है / इस तरह हम देखते हैं कि स्वरूपसम्बोधन के रचयिता के बारे में दो परम्पराएँ प्रचलित हैं,एक के अनुसार उसके कर्ता अकलंक हैं और दूसरी के अनुसार नयसेन के शिष्य महासेन / भरतेशवैभव में तत्त्वोपदेशप्रसङ्ग में कुछ जैन ग्रन्थों के नाम दिये हैं। उनमें पद्मनन्दिकृत स्वरूपसम्बोधन का नाम आया है। संभव है कि पद्मनन्दि ने भी स्वरूपसम्बोधन के नाम से कोई ग्रन्थ रचा हो / किन्तु पूर्वोक्त दो परम्पराएं तो एक ही ग्रन्थ के सम्बन्ध में प्रचलित हैं और दोनों ही प्राचीन हैं / शुभचन्द्रकृत पाण्डवपुराण की प्रशस्ति में लिखा है कि शुभचन्द्र ने स्वरूपसम्बोधन पर एक वृत्ति लिखी थी / इस वृत्ति के अवलोकन से स्वरूपसम्बोधन और उसके कर्ता के सम्बन्ध में वृत्तिकार का मत मालूम हो सकता है। किन्तु पता नहीं, वह प्राप्य भी है या नहीं। अतः वर्तमान परिस्थिति में हम उसके कर्ता का निश्चय कर सकने में असमर्थ हैं, किन्तु उसकी रचना आदि पर से वह हमें अकलंक की कृति नहीं प्रतीति होती। अकलङ्करतोत्र-यह स्तोत्र मुद्रित हो चुका है। इसमें 12 शार्दूलविक्रीडित और 4 स्रग्धरा छन्द हैं। महादेव, शङ्कर, विष्णु, ब्रह्मा, बुद्ध आदि नामधारी देवताओं के सम्बन्ध में जो कुछ कहा जाता है उसकी आलोचना करते हुए, निष्कलङ्क, ध्वस्तदोष, वीतराग परमात्मा को ही बुद्ध, वर्द्धमान, ब्रह्मा, केशव, शिव आदि नामों से पुकारते हुए उसी का स्तवन और बन्दन किया गया है, इसी से इस स्तोत्र को अकलङ्करतोत्र अर्थात् दोषरहित परमात्मा का स्तवन कहा जाता है। इसके 11 वें और 12 वें पद्य का अन्तिम चरण " नग्नं पश्यत वादिनी जगदिदं जैनेन्द्रमुद्राङ्कितम् / " है। इन दोनों पद्यों के प्रारम्भ के तीन चरणों में बतलाया गया है कि संसार पर न तो ब्रह्मा के वेष की छाप है, न शम्भु के, न विष्णु के और न बुद्ध के ही वेष की। और उक्त अन्तिम चरण में कहा गया है कि हे वादियों देखो, यह संसार जैनेन्द्रमुद्रा अर्थात् नग्नता की छाप से चिह्नित है (प्रत्येक प्राणी नग्न ही पैदा होता है)। - इन श्लोकों के बाद मल्लिपेणप्रशस्ति का 'नाहङ्कारवशीकृतेन मनसा' आदि श्लोक आता है। इस श्लोक के बाद पुनः पुराना राग अलापा जाता है और शिव के खट्वांग, मुण्डमाला, भस्म, शूल आदि की चर्चा शुरू हो जाती है.। इसके बाद 15 वें और 16 वें पद्यों में अकलक्ष परमात्मा के स्थान में शास्त्रार्थी अकलङ्कदेव की प्रशंसा होने लगती है, और इस स्तोत्र की विचित्र रचना को देखकर तारादेवी के साथ साथ बेचारे पाठक को भी सिर धुनना पड़ता है। स्तोत्र को देखकर थोड़ासा भी समझदार मनुष्य बिना किसी सङ्कोच के कह सकता है कि इसका तेरहवां पन्द्रहवां और सोलहवां पद्य प्रक्षिप्त है, किसी ने इसे अकलङ्करचित प्रसिद्ध करने की धुन में उन्हें पीछे से जोड़ दिया है। जोड़नेवाले ने अपनी दृष्टि में बहुत बुद्धिमानी से काम लिया है क्यों कि 11 वें और 12 वें श्लोकों के, जिसमें वादियों को ललकारा है, बाद ही मल्लिपेण प्रशस्तिवाला 13 वां पंद्य आता है। मानों, अकलङ्कदेवने किसी राजसभा में खड़े होकर स्तोत्र की रचना की है। किन्तु उसके बाद का 'खट्वाङ्गं नैव हस्ते' आदि श्लोक उसकी 1 अनेकान्त, वर्ष 1, पृ. 334 / 2 'नाहङ्कारवशीकृतेन मनसा' आदि। यह पहले उद्धृत किया जा चुका है।